नवजात की मौत की कीमत 41 हजार: फोन पर डॉक्टर से बात कर कंपाउंडर कर रहा था इलाज, 70 हजार लेने के बावजूद नहीं बचाई जान

नवजात की मौत की कीमत 41 हजार: फोन पर डॉक्टर से बात कर कंपाउंडर कर रहा था इलाज, 70 हजार लेने के बावजूद नहीं बचाई जान

SUPAUL: बिहार में झोला छाप डॉक्टर की करतूत आए दिन सामने आती है। लेकिन इस बार प्राइवेट क्लिनिक का कंपाउंडर चर्चा में हैं। हम बात सुपौल जिले की कर रहे हैं जहां प्राइवेट क्लिनिक की काली सच्चाई आज सबके सामने आ गयी है। दरअसल क्लिनिक में दर्जनभर नवजात शिशू एडमिट हैं लेकिन यहां डॉक्टर नहीं रहते हैं। यदि किसी बच्चे की तबीयत बिगड़ती है तब डॉक्टर से फोन पर बात करके कंपाउंडर इलाज करता है। इस लापरवाही की वजह से एक नवजात शिशू की आज मौत हो गयी। 


सुपौल के त्रिवेणीगंज स्थित यदुवंशी चाइल्ड केयर सेंटर ने बच्चे की इलाज के लिए 6 दिन में 70 हजार रूपये ऐंठ लिया लेकिन उसकी जान नहीं बचा पाए। बच्चे की मौत के बाद उल्टे मुंह बंद रखने के लिए परिजन को 41 हजार रुपये दिया गया। यूं कहे कि बच्चे की मौत की कीमत परिजनों को सौंपी गयी। बच्चे की जान बचाने के लिए परिजनों 70 हजार रूपये डॉक्टर को दिया लेकिन जब मौत हो गयी तब मामला तूल ना पकड़े इसके लिए परिजनों से सौदा किया गया। बच्चे की मौत की कीमत 41 हजार रूपये लगायी गयी। यह रकम परिजनों को सौंपी गयी लेकिन सादे कागज पर लिखवाया गया कि इसमें डॉक्टर की कोई गलती नहीं है।  


सुपौल जिले के त्रिवेणीगंज बाजार में संचालित यदुवंशी चाइल्ड केयर सेंटर के संचालक डॉ ललन कुमार यादव की सच्चाई से पर्दा तब उठा जब इनके चाइल्ड केयर सेंटर में छह दिनों से भर्ती एक नवजात की मौत हो गई। दरअसल बीते 8 सितम्बर को त्रिवेणीगंज अनुमंडलीय अस्पताल में एक नवजात बच्ची का जन्म हुआ था। जिसके स्वास्थ्य में परेशानी होने के बाद आशा कार्यकर्ता के कहने पर परिजन  त्रिवेणीगंज के यदुवंशी चाइल्ड केयर सेंटर में बच्चे को भर्ती कराया जहां आज इलाज के क्रम में मौत हो गई।जानकारी के बाद चाइल्ड केयर सेंटर पर मौजूद मृतक नवजात के परिजनों ने हंगामा करना शुरू कर दिया। 


इस दौरान परिजनों ने यदुवंशी चाइल्ड केयर सेंटर के चिकित्सक डॉ ललन कुमार यादव और कंपाउंडर पर गंभीर आरोप लगाया। उनका कहना है कि डॉक्टर ने नवजात बच्चे की इलाज में जान-बुझकर लापरवाही की और उसे मार दिया। ईलाज के लिए 70 हज़ार रुपए जमा करने के बाद भी डॉक्टर ने समुचित ईलाज नहीं किया। बार-बार कहने के बाद सिर्फ रूपये वसूलने के लिए नवजात बच्चे को प्राइवेट क्लिनिक में भर्ती रखा और जब आज छह दिन बीत गए तब कंपाउंडर स्टाफ ने कहा कि आपके बच्चे की मौत हो गई है। परिजनों ने डॉक्टर के काली करतूतों से पर्दा उठाते हुए कहा कि यह डॉक्टर यहां नवजात बच्चों का ईलाज भगवान भरोसे करता हैं। 


यहां डॉक्टर रहते ही नहीं है। डॉक्टर बाहर रहते हैं और यहां जो उनका कंपाउंडर है उसे फोन पर बताते हैं कि ईलाज कैसे करना है। तब यहां मौजूद स्टाफ और कंपाउंडर यहां भर्ती नवजात बच्चों का ईलाज करते हैं। परिजनों द्वारा लगाए गए आरोपों के संबंध में यदुवंशी चाइल्ड केयर सेंटर पर उपस्थित स्टाफ कंपाउंडर मिथिलेश कुमार से बात की गई तो उसने बताया कि डॉक्टर साहब मधेपुरा में रहते हैं। यहां अभी वर्तमान में 12 नवजात बच्चे भर्ती हैं। इन्हे कोई परेशानी होने पर डॉक्टर से मोबाइल पर बात कर उन्हें बताते हैं और फिर डॉक्टर साहब जो कहते हैं वो करते हैं और फिर 40 से 50 मिनट में डॉक्टर साहब यहां पहुंच जाते हैं। आज एक नवजात की यहां मौत हो गईं है मृतक नवजात को जन्म लेने के बाद परेशानी होने पर उसे 6 दिनों पहले परिजनों द्वारा यहां भर्ती कराया गया था और फिर आज उसकी मौत हो गई। परिजन नवजात के ईलाज के लिए जो भी रूपये दिए हैं वह सब डॉक्टर साहब के पास ही है।


इधर जब मृतक नवजात के परिजन यदुवंशी केयर सेंटर पर हंगामा कर रहे थे तरह तरह के आरोप लगा रहे थे तब इस मामले को शांत करने आगे जनप्रतिनिधि आए और कुछ लोगों के साथ मिलकर डॉक्टर और चाइल्ड केयर सेंटर के स्टाफ को बचाने का बीड़ा उठाया और घंटो तक कड़ी मशक्कत के बाद मृतक नवजात की मौत का सौदा उनके परिजनों के साथ 41 हज़ार रुपए में तय किया। जिसके बाद डॉक्टर की अनुपस्थिति में डॉक्टर के स्टाफ और कंपाउंडर ने जनप्रतिनिधि और लोगों के कहने पर मृतक नवजात के परिजन को नकद 21 हजार रूपए दिया और 20 हज़ार रुपए पे फोन के माध्यम से मृतक के परिजन को दिया गया। जिसके बाद सभी ने मिलकर इस गंभीर मामले को दबा दिया। रूपये भुगतान करने के बाद मौजूद जनप्रतिनिधि और कुछ लोगों ने मृतक नवजात के पिता से सादे कागज पर डॉक्टर को बचाने के लिए अपने मनोनुकूल कुछ लिखवाया और उनसे दस्तखत करा कर फिर अपने पास रख लिया।


वहीं जब इस मामले में सिविल सर्जन सुपौल से संपर्क किया गया तो उन्होंने बताया कि मैं फिल्ड में हूं वहीं जब इस मामले को लेकर एसीएमओ से बात की गई तो उन्होंने इस मामले पर कुछ भी कहने से इंकार कर दिया और कहा की ये मेरे अधिकार क्षेत्र से बाहर की चीज है। लेकिन इस घटना ने अपने पीछे कई सवाल छोड़ गया है। आखिर कंपाउंडर को इलाज करने का हक किसने दे दिया कि वो डॉक्टर को फोन करता और उसे फोन पर ही डॉक्टर डायरेक्शन देते थे कि बच्चे का इलाज कैसे करना है। जब डॉक्टर क्लिनिक में नहीं रहते हैं तो मरीज को भर्ती ही नहीं लेनी चाहिए थी। नवजात शिशू की जान से खिलवाड़ नहीं करनी चाहिए थी। हैरान करने वाली बात तो यह है कि खुद को बचाने के लिए नवजात की जान की कीमत 41 हजार रूपये लगायी गयी। मृतक के परिजनों से डॉक्टर के बचाव में सादे कागज पर लिखवा लिया गया और उस पर हस्तांक्षर भी कराया गया ताकि किसी तरह की कानूनी कार्रवाई डॉक्टर और उनके कंपाउंडर पर ना हो। लेकिन यह मामला बेहद ही गंभीर है इस पर स्वास्थ्य विभाग के मंत्री और अधिकारियों को संज्ञान लेनी चाहिए।