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Bihar politics: बिहार एक बार फिर से चुनावी मोड़ पर है। अगले कुछ महीनों में संभावित विधानसभा चुनावों की आहट ने राज्य की राजनीति को गर्मा दिया है। इस माहौल में सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या बिहार की राजनीति अब विचारधारा पर टिकी है या पूरी तरह 'राजनीतिक सुविधा' यानी (Politics of Convenience) पर केंद्रित हो गई है?
राजनीति में सिद्धांतों की भूमिका कम होती जा रही है,यानि (politics of conviction) और गठबंधन, नीतियाँ, और घोषणाएँ सत्ता प्राप्ति या उसमें बने रहने के उद्देश्य से बार-बार बदले जा रहे हैं। हाल के वर्षों में बिहार की राजनीति में जो कुछ घटित हुआ है, वह इसी प्रवृत्ति का प्रतिबिंब है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जो एक समय ‘सुशासन बाबू’ के नाम से विख्यात थे, आज अपने राजनीतिक निर्णयों को लेकर आलोचना के केंद्र में हैं। पिछले एक दशक में उन्होंने कई बार राजनीतिक पाला बदला है | 2013 में बीजेपी से अलग होकर महागठबंधन में शामिल हुए, 2017 में फिर एनडीए के साथ गए, 2022 में वापस राजद के साथ और फिर 2024 में एक बार फिर एनडीए में लौटे। यह सिलसिला उनके आलोचकों को यह कहने का अवसर देता है कि उन्होंने अपनी छवि 'आया राम, गया राम' जैसी बना ली है| एक राजनीतिक मुहावरा जिसकी जड़ें 1967 में हरियाणा के नेता 'गाया लाल' की एक ही दिन में तीन बार पार्टी बदलने की घटना में हैं। सवाल उठता है कि क्या ये फैसले जनहित में थे, या सत्ता में बने रहने की रणनीति?
दूसरी ओर, नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने युवाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे मुद्दों पर आश्वस्त किया। लेकिन शासन के अवसर मिलने पर उनकी पार्टी के कुछ पुराने तौर-तरीके, जैसे जातिगत समीकरण, आरोपित अपराधियों की कथित तौर पर संरक्षण ये मुद्दे उनके दावों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हैं। यह भी स्पष्ट नहीं हो सका कि वह अपने पिता लालू प्रसाद यादव की राजनीति से कितनी दूर जा पाए हैं।
चिराग पासवान ने 'बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट' जैसा नारा देकर एक अलग विमर्श खड़ा करने की कोशिश की थी। लेकिन एनडीए का हिस्सा होते हुए बीजेपी के खिलाफ उम्मीदवार उतारने और फिर वापस उसी गठबंधन में लौटने से उनकी राजनीतिक दिशा को लेकर असमंजस की स्थिति बनती रही। क्या उनके फैसले बिहार के हित में थे या व्यक्तिगत राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई?
राज्य में छोटे दलों और नेताओं की स्थिति भी कुछ अलग नहीं रही है।अधिकतर मौकों पर ये नेता चुनावों से पहले अपने पाले बदलते दिखते हैं। विचारधारा और नीतिगत स्पष्टता की बजाय, सत्ता में हिस्सेदारी और प्रभाव की राजनीति इनकी प्राथमिकता रही है।
आपको बता दे कि जनता, खासकर युवा वर्ग, अब पहले से कहीं अधिक जागरूक हो चुकी है। सोशल मीडिया और डिजिटल जानकारी ने मतदाताओं को सवाल पूछने और विश्लेषण करने का औजार दिया है। परंतु जमीनी हकीकत यह भी है कि चुनावी दौर में जातीय समीकरण, भावनात्मक भाषण और ध्रुवीकरण की राजनीति अब भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
बिहार की राजनीति एक दोराहे पर खड़ी है। एक ओर ऐसी राजनीति है जो विचार, नीति और सिद्धांतों पर आधारित हो, और दूसरी ओर वह जिसमें सत्ता प्राथमिक ध्येय है ,भले ही विचारधारा की कीमत पर क्यों न हो। इन दोनों के बीच का चुनाव अब जनता को करना है।
आगामी विधानसभा चुनाव केवल राजनीतिक दलों की परीक्षा नहीं हैं, बल्कि यह एक अवसर है जनता के लिए — यह तय करने का कि क्या वे फिर से उन्हीं चेहरों को चुनेंगे जिन्होंने समय-समय पर अपने रुख बदले, या किसी वैकल्पिक नेतृत्व को मौका देंगे जो वैचारिक रूप से स्थिर और जवाबदेह हो? बिहार का भविष्य अब केवल नेताओं के हाथों में नहीं है, बल्कि उन मतदाताओं के निर्णय पर निर्भर करेगा जो यह तय करेंगे कि राज्य की राजनीति सुविधा से चलेगी या विचार से