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जहानाबाद के ओकरी से मुंबई तक का सफर: संप्रदा बाबू ने दुनिया भर में बिहार का नाम रोशन किया था

1st Bihar Published by: 3 Updated Sat, 27 Jul 2019 07:20:42 PM IST

जहानाबाद के ओकरी से मुंबई तक का सफर: संप्रदा बाबू ने दुनिया भर में बिहार का नाम रोशन किया था

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PATNA: ये देखो संप्रदा का खेल, पढ़े फारसी बेचे तेल. जहानाबाद के मोदनगंज प्रखंड के ओकरी गांव में एक वक्त ऐसा भी था जब गांव के लोग मजे लेकर ये बात कहते थे. लेकिन उसी संप्रदा ने ऐसा खेल रचा कि ओकरी और जहानाबाद ही नहीं बल्कि पूरे बिहार को अपने इस लाल पर गर्व होने लगा. संप्रदा बाबू उस मुकाम पर पहुंचे जहां आज तक कोई दूसरा बिहारी नहीं पहुंच पाया. https://www.youtube.com/watch?v=qkUzJLf7PB8&t=7s ओकरी से मुंबई तक का सफर जहानाबाद के मोदनगंज प्रखंड के ओकरी गांव में एक किसान के घर जन्मे संप्रदा सिंह ने दुनिया भर में बिहार का नाम रोशन किया था. उनकी कंपनी का कारोबार 100 करोड़ डॉलर यानि तकरीबन 7 हजार करोड़ रूपये तक पहुंच गया था. फोर्ब्स पत्रिका ने उन्हें 2017 में देश का 43वां सबसे अमीर व्यक्ति बताया था. देश भर की दवा कंपनियां उनके बिजनेस मॉडल को फॉलो करना चाहती थी. पूरी दुनिया में उन्हें दर्जनों सम्मान हासिल हुआ. फोर्ब्स ने उनकी संपत्ति 21 हजार करोड़ रूपये से ज्यादा की आंकी थी. पढ़े फारसी बेचे तेल संप्रदा बाबू ने अपनी पढ़ाई जहानाबाद के घोषी हाई स्कूल से की थी. बाद में गया से बी कॉम किया. उस दौर में बी कॉम बहुत बड़ी बात होती थी. तुरंत अच्छी नौकरी मिलती थी. लेकिन उन्होंने खेती करने की सोची. संप्रदा सिंह अपने गांव आये और आधुनिक तरीके से खेती करने की तैयारी की. लेकिन उसी साल अकाल पड़ा और उनकी सारी कोशिशें बेकार हो गयी. गांव वाले तभी कहते थे-देखो रे संप्रदा का खेल-पढ़े फारसी बेचे तेल. स्कूल में पढ़ाया, दवा दुकान में काम की खेती से निराश संप्रदा सिंह ने एक निजी स्कूल में बच्चों को पढ़ाना शुरू किया. लेकिन सैलरी कम मिलती थी जिससे खर्च चला पाना भी मुश्किल था. लिहाजा पटना चले आये और दवा दुकान पर काम करना शुरू दिया. फिर वो दौर भी आया जब खुद की दवा दुकान खोली. लक्ष्मी पुस्तकालय के परमेश्वर बाबू के साथ उन्होंने पार्टनरशिप में दवा की दुकान पटना के खुदाबख्श लायब्रेरी के पास शुरू की. लेकिन दोनों के बीच ज्यादा दिन निभ नहीं पायी. लिहाजा पार्टनरशिप टूटा और संप्रदा सिंह ने अपना कारोबार शुरू कर दिया. 1973 में पड़ी ALKEM की नींव वो 1970 का दौर था जब दोस्तों से एक लाख का कर्ज लेकर संप्रदा सिंह मुंबई पहुंच गये. वे दवा कंपनी खोलना चाहते थे. लोगों ने मजाक उड़ाया. एक लाख में दवा कंपनी कैसे खुल सकती है. लेकिन जुनून से भरे संप्रदा सिंह ने अल्केम नाम की कंपनी बनायी. पहले दूसरों की दवा फैक्ट्री में दवा बनवानी शुरू की. डॉक्टरों से संबंध पहले से ही बना था लिहाजा दवा बिकनी भी शुरू हुई. फिर अपनी फैक्ट्री डाली जिसने इतिहास रच दिया. अल्केम फार्मा देश की पांच सबसे बडी कंपनियों में से एक बन गयी. संप्रदा सिंह में बड़ी खासियत ये भी रही कि उन्होंने अपने पूरे परिवार को समेट कर रखा. खुद कंपनी के चेयरमैन थे तो भाई वासुदेव प्रसाद सिंह को कंपनी का मैनेजिंग डायरेक्टर बनाये रखा. उनका लंबा चौड़ा परिवार अल्केम से जुड़ा ही नहीं बल्कि हिस्सेदार भी है. इसी पारिवारिक एकता ने अल्केम को कभी पीछे नहीं जाने दिया. हालांकि किसान का ये बेटा पढ़ाई पूरी करने के बाद खेती करना चाहता था, लेकिन उसी साल अकाल प़ड़ गया. मजबूरन पटना के एक दवा दुकान में काम करना शुरू कर दिया था. दवा दुकान की नौकरी से देश की पांचवी सबसे बड़ी दवा कंपनी का मालिक बन जाने का सफर संप्रदा सिंह जैसे जुनूनी ही तक कर पाते हैं.