घर के अंदर कहे जातिसूचक शब्द पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला: SC/ST एक्ट के तहत मुकदमा रद्द

सुप्रीम कोर्ट ने SC/ST एक्ट के तहत कार्यवाही रद्द की, कहा निजी घर सार्वजनिक स्थान नहीं, लेकिन IPC के तहत आरोपियों के खिलाफ मुकदमा जारी रहेगा।

1st Bihar Published by: First Bihar Updated Tue, 09 Dec 2025 08:57:00 AM IST

घर के अंदर कहे जातिसूचक शब्द पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला: SC/ST एक्ट के तहत मुकदमा रद्द

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सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 (SC/ST एक्ट) के तहत एक मामले में महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। शीर्ष अदालत ने कुछ आरोपियों के खिलाफ शुरू की गई कार्यवाही को रद्द कर दिया, यह कहते हुए कि शिकायतकर्ता का घर सार्वजनिक स्थान नहीं माना जा सकता। हालांकि, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भारतीय दंड संहिता (IPC) के तहत आरोपियों के खिलाफ मुकदमे की प्रक्रिया अब भी वैध रूप से जारी रहेगी।


यह मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट के इसी साल जुलाई के आदेश को चुनौती देने से जुड़ा था। हाई कोर्ट ने सुनवाई के दौरान अधीनस्थ अदालत के आदेश को बरकरार रखा था, जिसमें आरोपियों को SC/ST एक्ट और IPC दोनों के तहत अपराधों के लिए तलब किया गया था। निचली अदालत ने आरोपी पक्ष को आईपीसी और SC/ST एक्ट के तहत मुकदमे का सामना करने के लिए आदेशित किया था।


सुप्रीम कोर्ट की पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति विक्रमनाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता शामिल थे, ने कहा कि हाई कोर्ट ने माना था कि आरोपियों ने शिकायतकर्ता के बेटे को सार्वजनिक सड़क पर मारपीट किया था। ऐसी स्थिति में यह घटना SC/ST एक्ट के प्रावधानों के तहत अपराध के दायरे में आती। अदालत ने SC/ST एक्ट की धारा 3(1)(S) का विशेष उल्लेख किया, जो अत्याचार के अपराध और दंड से संबंधित है। इस धारा के तहत अपराध तब माना जाता है जब किसी व्यक्ति के साथ सार्वजनिक रूप से या लोगों की उपस्थिति में जातिसूचक शब्दों का प्रयोग किया जाता है।


सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई के दौरान पाया कि शिकायतकर्ता द्वारा पहले दायर किए गए आवेदन से यह स्पष्ट होता है कि जातिसूचक शब्द आरोपियों ने शिकायतकर्ता के घर के अंदर ही इस्तेमाल किए थे। अदालत ने कहा कि इस परिस्थिति में यह कानूनी आवश्यकताओं को पूरा नहीं करती कि दुर्व्यवहार किसी सार्वजनिक स्थान पर हुआ हो। कोर्ट ने स्पष्ट किया, "शिकायतकर्ता का घर सार्वजनिक रूप से दृश्य नहीं माना जा सकता। इसलिए, SC/ST अधिनियम की धारा 3(1)(S) के तहत अपराध का घटक पूरा नहीं हुआ।"


अदालत ने कहा कि SC/ST एक्ट का उद्देश्य ऐसे अत्याचारों को रोकना है जो सार्वजनिक स्थानों पर जातिसूचक अपमान या हिंसा के रूप में सामने आते हैं। जब अपराध निजी परिसरों या घरों के अंदर घटित होता है, तब इसे सार्वजनिक अपराध के दायरे में नहीं लाया जा सकता। इस तर्क के आधार पर, सुप्रीम कोर्ट ने आरोपियों के खिलाफ SC/ST एक्ट के तहत चल रही कार्यवाही को रद्द कर दिया।


हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि IPC के तहत आरोपी अब भी कानून के अनुसार जिम्मेदार रहेंगे। यानी आरोपियों के खिलाफ शारीरिक हिंसा, मारपीट या अन्य आपराधिक कृत्यों के मामले में मुकदमा जारी रहेगा। अदालत ने यह भी कहा कि यह फैसला SC/ST एक्ट की भावना या उसके उद्देश्यों के खिलाफ नहीं है, बल्कि केवल कानूनी दायरे और परिभाषा की सीमाओं के आधार पर लिया गया है।


विशेषज्ञों का कहना है कि यह फैसला SC/ST एक्ट के तहत सार्वजनिक स्थान की परिभाषा और अपराध की शर्तों को स्पष्ट करने में अहम भूमिका निभाता है। इससे भविष्य में ऐसे मामलों में अदालतों को मार्गदर्शन मिलेगा कि निजी परिसरों में घटित जातिसूचक अपमान की घटनाओं को SC/ST एक्ट के दायरे में कैसे देखा जाए।


SC/ST एक्ट को 1989 में अत्याचार और भेदभाव को रोकने के लिए बनाया गया था। यह अधिनियम अनुसूचित जातियों और जनजातियों के खिलाफ किसी भी प्रकार के अपमान, हिंसा या अत्याचार को रोकने का कानूनी साधन है। धारा 3(1)(S) विशेष रूप से उन घटनाओं को नियंत्रित करती है जिसमें जातिसूचक शब्दों का प्रयोग सार्वजनिक रूप से किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इस धारा की व्याख्या को और स्पष्ट करता है।


इस फैसले से यह संदेश भी गया है कि कानून के दायरे में आने वाले अपराधों की प्रकृति और स्थान पर ध्यान दिया जाएगा। निजी घरों में हुई घटनाओं के लिए SC/ST एक्ट लागू नहीं होगा, लेकिन IPC के तहत अपराधों की कार्रवाई जारी रहेगी।


अदालत के फैसले के बाद अब यह स्पष्ट हो गया है कि SC/ST एक्ट केवल उन परिस्थितियों में लागू होगा जहां अपमान या अत्याचार सार्वजनिक स्थान पर हो और समाज के सामने जातिसूचक शब्दों का प्रयोग किया गया हो। वहीं, किसी भी निजी स्थान में घटित ऐसी घटनाओं के लिए IPC की धाराओं के तहत मुकदमे की प्रक्रिया पूरी तरह वैध है।


यह फैसला न केवल SC/ST एक्ट के तहत अपराधों की व्याख्या को स्पष्ट करता है, बल्कि यह कानून के दायरे और सार्वजनिक-निजी स्थान की सीमा को भी परिभाषित करता है। इस फैसले के बाद अधिनस्थ अदालतों और उच्च न्यायालयों को ऐसे मामलों में दिशा-निर्देश मिलने की संभावना है।


सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि कानून का उद्देश्य अत्याचार रोकना और पीड़ितों को न्याय दिलाना है, लेकिन साथ ही कानूनी आवश्यकताओं और परिभाषाओं का पालन करना भी अनिवार्य है। इसलिए, इस मामले में SC/ST एक्ट के तहत कार्यवाही रद्द की गई, जबकि IPC के तहत मुकदमे की प्रक्रिया निरंतर जारी रहेगी।