DESK: आरएसएस यानि 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' के 94 साल पूरे हो गए. साल 2025 को आरएसएस 100 साल का हो जाएगा. भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के मकसद से 27 सितंबर 1925 को आरएसएस की स्थापना हुई थी. इसकी स्थापना केशव बलराम हेडगेवार ने की थी. वर्तमान समय में नागपुर से अपनी गतिविधियां चलान वाला संघ विराट रुप ले चुका है.
आरएसएस ने तैयार की मजबूत कार्य योजना
शुरुआती दौर में संघ का क्या नाम होगा, संगठन के क्या काम होंगे यह सब तय नहीं था लेकिन समय के साथ-साथ संघ ने मजबूती के साथ अपनी कार्य योजना तैयार की और उसपर अमल करता गया. शुरुआती दिनों में संघ से केवल हिंदुओं को संगठित करने की योजना थी. आरएसएस का नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 17 अप्रैल 1926 को रखा गया. इसी दिन हेडगेवार को सर्वसम्मति से संघ का प्रमुख चुना गया. आरएसएस का प्रमुख बनाए जाने के बाद हेडगेवार ने व्यायामशालाएं और अखाड़ों की मदद से संघ के कामों को आगे बढ़ाया. हेडगेवार की कल्पना थी कि संघ का कार्यकर्ता स्वस्थ और अनुशासित होना चाहिए.
1 करोड़ से ज्यादा प्रशिक्षित सदस्य
मौजूदा समय में देखा जाए तो आरएसएस का दावा है कि उसके देश विदेशों में एक करोड़ से ज्यादा प्रशिक्षित सदस्य हैं. आरएसएस में 80 से ज्यादा समविचारी या फिर आनुषांगिक संगठन हैं. संघ विश्व के करीब 40 देशों में सक्रिय है. मौजूदा समय में संघ की 56 हजार 569 दैनिक शाखाएं लगती हैं. संघ में सदस्यों का पंजीकरण नहीं होता. ऐसे में शाखाओं में उपस्थिति के आधार पर अनुमान है कि फिलहाल 50 लाख से ज्यादा स्वयंसेवक नियमित रूप से शाखाओं में आते हैं. वर्तमान समय में देश के हर प्रखंड और करीब 55 हजार गांवों में संघ की शाखा लग रही है.
लंबे सफर में आरएसएस ने देखे कई उतार चढ़ाव
आरएसएस ने अपने लंबे सफर में कई उतार चढ़ाव झेले हैं. इस दौरान उन्होंने लंबे सफर में कई उपलब्धियां अर्जित की जबकि तीन बार उसके खिलाफ बैन भी लगा. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या को संघ से जोड़कर देखा गया जबकि संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर को बंदी बनाया गया. आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया लेकिन 18 महीने बाद उससे बैन हटा लिया गया. दूसरी बार संघ के खिलाफ इमरजेंसी के दौरान 1975 से 1977 तक पाबंदी लगायी गयी. जबकि तीसरी बार छह महीने के लिए 1992 के दिसंबर में आरएसएस पर बैन लगाया गया, जब 6 दिसंबर को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई थी.
आजादी के आंदोलन में नहीं थी सक्रिय भूमिका
देखा जाए तो आरएसस ना तो महात्मा गांधी की अगुवाई में चलने वाले आजादी के आंदोलन का कभी हिस्सेदार बना, न कांग्रेस से निकले नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आंदोलन का साझीदार. यहां तक कि साल 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय भी आरएसएस की कोई भूमिका नहीं दिखी. आरएसएस के कुछ फैसलों या फिर उनकी नीतियों को लेकर समय समय पर विवाद भी होता रहा जैसे संघ साल 1947 के दौरान एक पत्रिका में प्रकाशित संपादकीय में भगवा रंग को भारत का झंडा बनाए जाने की वकालत की. 22 जुलाई को जब तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज मान लिया गया तो संघ ने तिरंगे को अपने दफ्तरों में फहराने से ही इनकार कर दिया. हालांकि समय के साथ साथ संघ नेताओं ने भी अपने विचारों में बदलाव किया और आज कई जगहों पर तिरंगा फहराया जाने लगा.
अनुशासित संगठन के तौर पर पहचान
संघ की पहचान आज एक बेहद अनुशासित संगठन के तौर पर की जाती है. साल 1962 में चीनी आक्रमण के समय संघ कार्यकर्ताओं ने सरहदी इलाकों में लोगों की काफी मदद की थी और लोगों तक राहत का सामान पहुंचाया था. इससे प्रभावित होकर उस समय के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने साल 1963 में गणतंत्र दिवस की परेड में संघ को बुलाया था. साल 1965 में पाकिस्तान से युद्ध के दौरान भी संघ कार्यकर्ताओं ने दिल्ली में ट्रैफिक व्यवस्था सुधारने में प्रशासन की काफी मदद की थी.
RSS की विचारधारा का विरोध
आरएसएस की विचारधार को लेकर राजनीतिक दलों ने समय समय पर काफी विरोध भी जाहिर किया है. कुछ दल तो आरएसएस को घोर आरक्षण विरोधी मानते हैं और पिछड़ों का विरोधी बताते हैं. संघ साफ तौर पर हिंदू समाज को उसके धर्म और संस्कृति के आधार पर शक्तिशाली बनाने की वकालत करता है. देखा जाए तो संघ से निकले स्वयंसेवकों ने ही बीजेपी की स्थापना की है. कभी 25 स्वयंसेवकों से शुरू हुआ संघ आज विशाल संगठन के रूप में स्थापित है.