राजनीति में जहर पीने की रवायत पुरानी है, सियासी अदावत के लिए लालू ने भी पिया था जहर

राजनीति में जहर पीने की रवायत पुरानी है, सियासी अदावत के लिए लालू ने भी पिया था जहर

PATNA: राजनीति को क्रिकेट की तरह अनिश्चितताओं का खेल कहा जाता है और यही अनिश्चितताएं सियासी खेल को कई बार क्रिकेट की तरह हीं दिलचस्प बना देती है. बदलते वक्त के साथ जब राजनीति बदली तो इसकी रवायतें भी बदली। सियासत में जहर पीने की एक नयी परंपरा शुरू हुई है। सियासत में अक्सर समझौते होते हैं और शायद समझौतों की वजह से हीं यह कहा जाता है कि सियासत में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता। कहते हैं राजनीति बहुत निर्मम होती है और यही निर्ममता कई बार मुश्किल से मुश्किल समझौते को मजबूर कर देती है। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव से पहले बिहार की सियासत में निर्ममता की वानगी देखने को मिल रही है। समीकरण ऐसे हैं कि बिहार की सियासत के कई किरदारों को जहर पीनें को तैयार होना पड़ रहा है। कल रालोसपा अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा ने कहा कि वे जहर पीने को भी तैयार हैं। 

बयान के बाद बिहार के सियासी गलियारों में यह सवाल टहलने लगे कि आखिर उपेन्द्र कुशवाहा जहर क्यों पीना चाहते हैं। दरअसल कभी एनडीए में रसूखदार सहयोगी रहे ‘कुशवाहा’ को महागठबंधन में भाव नहीं मिल रहा। सीटों को लेकर कुछ भी तय नहीं है और अगर तय हुआ भी तो बहुत ज्यादा मिलने की संभावना भी नहीं है। दिक्कत यह है कि उनके पास ज्यादा विकल्प भी नहीं है। चुनाव से ऐन पहले खेमा बदलने का हश्र वे जानते हैं और फिलहाल उनके लिए कोई मुफीद खेमा है भी नहीं बिहार में किसी तीसरे मोर्चे के पास मजबूत जमीन नहीं है और एनडीए में जाने का विकल्प उसके पास नहीं है क्योंकि सीएम नीतीश कुमार से उने 36 के रिश्ते हैं। जाहिर है महागठबंधन में बने रहना उनकी मजबूरी है और अपनी मजबूरी को उन्होंने जहर का नाम दिया है। सवाल है क्या उपेन्द्र कुशवाहा राजनीति के पहले किरदार हैं जो जहर पी रहे हैं या जिनको जहर पीना पड़ रहा है जवाब है नहीं क्योंकि मौजूदा वक्त में बिहार की सियासत में एक दूसरा किरदार भी है जिसने जहर पिया है। बिहार के पूर्व सीएम जीतन राम मांझी काॅर्डिनेशन कमिटी के नाम पर तेजस्वी यादव से आर-पार की लड़ाई लड़ते रहे और जब तेजस्वी ने भाव नहीं दिया और कांग्रेस भी मदद नहीं कर पायी तो अलग राह लेनी उनकी मजबूरी थी और उन्होंने भी जहर पीने का रास्ता भी चुना। आखिरकार वे नीतीश के साथ चले गये। 



मांझी जानते हैं और यह सर्वविदित भी है कि नीतीश के साथ जाने के बाद भी उन्हें बहुत कुछ मिलने वाला नहीं है। विधानसभा चुनाव में उन्हें 5-6 सीटों से ज्यादा नहीं मिलने वाला बावजूद उनको जेडीयू के साथ एडजस्ट होना पड़ेगा। थोड़ा फ्लैशबैक में जाएं तो 2015 के विधानसभा चुनाव मे बीजेपी को शिकस्त देने के लिए लालू ने भी जहर पिया था। 2014 के लोकसभा चुनाव के  जो परिणाम आए उसने लालू को बैचैन कर दिया था। बीजेपी का साथ छोड़ने के बाद इसी लोकसभा चुनाव में नीतीश के हिस्से सिर्फ 2 सीटें आयी थी जाहिर है बेचैनी इस ओर भी थी। लालू ने नीतीश को फोन किया और दोस्ती की जमीन तैयार की। तब लालू-नीतीश का एक होना नदी के दो किनारों के एक होने जैसा हीं था लेकिन लालू-नीतीश साथ आए। दोस्ती हुई लेकिन मामला सीएम पद पर अटका। नीतीश सीएम की दावेदारी छोड़ने को तैयार नहीं थे और लालू को नीतीश की यह डिमांड मंजूर नहीं थी लेकिन आखिरकार बीजेपी से सियासी अदावत की वजह से लालू ने जहर पिया और नीतीश को सीएम कैंडिडेट घोषित किया। 2015 के विधानसभा चुनाव में जहर का जिक्र बार-बार आया।

 लालू-राबड़ी शासनकाल को आतंक राज बताकर 2005 में सत्तासीन हुए नीतीश को 2005 में लालू से दोस्ती पर बार-बार सफाई देनी पड़ रही थी। आखिरकार नीतीश ने कबीर के एक दोहे को हथियार बनाया और उसे ट्वीट किया। जो रहीम उत्तम प्रकृति का करी सकत कुसंग, चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग। दोहे का मतलब यह होता है कि जो अच्छे लोग होते हैं उनपर बुरी संगत का असर नहीं होता जैसे चंदन के पेड़ पर जहरीला सांप लिपटा होता है लेकिन उसके विष का असर चंदन पर नहीं होता। जाहिर है नीतीश ने यह सफाई देने की कोशिश की थी कि लालू के साथ दोस्ती के बावजूद उनके सुशासन पर कोई बुरा असर नहीं होगा और बिहार उस कथित आतंकराज की ओर नहीं लौटेगा जिसका जिक्र नीतीश करते रहे थे। कुल मिलाकर बात यह है कि उपेन्द्र कुशवाहा अकेले ऐसे नेता नहीं हैं जो जहर पी रहे हैं बल्कि सियासत की निर्ममता और प्रतिकूल परिस्थितियों में जहर पीने वाले नेताओं में लालू सबसे बड़े उदाहरण हैं।