कुमार प्रबोध का ब्लॉग: सिर्फ चाय-लंच की पार्टी होगी 12 जून की विपक्षी बैठक, एकता की हवा पहले निकल चुकी है, नीतीश का इरादा कुछ और

कुमार प्रबोध का ब्लॉग: सिर्फ चाय-लंच की पार्टी होगी 12 जून की विपक्षी बैठक, एकता की हवा पहले निकल चुकी है, नीतीश का इरादा कुछ और

PATNA: लगभग 10 महीने हुए जब नीतीश कुमार ने भाजपा से पल्ला झाड़ कर राजद का दामन थामा था. ये 2022 के 9 अगस्त की बात है. उसी समय ये एलान किया गया था कि नीतीश कुमार पूरे देश के विपक्षी पार्टियों को भाजपा के खिलाफ एकजुट करेंगे. 10 महीने की कवायद के बाद 12 जून को पटना में देश के विपक्षी पार्टियों की बैठक होने जा रही है. जेडीयू और राजद के नेता इस बैठक को लेकर बड़े बड़े दावे करने में लगे हैं. लेकिन बैठक से ठीक पहले के घटनाक्रम बता रहे हैं कि 12 जून को सिर्फ चाय और लंच की पार्टी होगी. एकता की हवा निकल पहले ही निकल चुकी है. अब अगर नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के साथ साथ उनका कुनबा बड़े बड़े दावे कर रहा है तो इसका मकसद भी क्लीयर है. जानिये कुमार प्रबोध से कि इस पॉलिटिकल ड्रामे के पीछे असल कहानी क्या है.


बैठक से पहले निकली हवा

12 जून को पटना में विपक्षी पार्टियों की बैठक होनी है. इससे ठीक 12 दिन पहले बंगाल में दिलचस्प घटनाक्रम हुआ. ममता बनर्जी ने बंगाल में कांग्रेस के एकमात्र विधायक बायरन बिस्वास को अपनी पार्टी में शामिल करा लिया. कांग्रेस तिलमिलायी. उसके महासचिव जयराम रमेश ने कहा-ये अवैध शिकार है, जनता के साथ विश्वासघात है. इसके बाद ममता बनर्जी का जवाब भी दिलचस्प था-हम क्षेत्रीय पार्टी हैं. बंगाल के अलावा मेघालय और गोवा में चुनाव लड़ते हैं. बाकी गुजरात ,छ्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में तो कांग्रेस का समर्थन किया ही.


ममता बनर्जी ने लगभग साफ कर दिया कि वह बंगाल में कांग्रेस को कोई जगह नहीं देने जा रही हैं. यानि कांग्रेस बंगाल को भूल जाये. क्या नीतीश कुमार बंगाल की सीएम ममता बनर्जी को मना लेंगे कि वह कांग्रेस के लिए सीट छोड़ दे या फिर कांग्रेस को राजी कर लेंगे कि वह बंगाल को भूल जाये. राजनीतिक जानकार जानते हैं कि ऐसा कर पाना किसी हालत में मुमकिन नहीं है.


बैठक से पहले विपक्षी एकता की हवा उत्तर प्रदेश में भी निकली. चार दिन पहले उत्तर प्रदेश में विधान परिषद के दो सीटों पर उप चुनाव था. वहां भाजपा के मुकाबले समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार खड़े थे. कांग्रेस के साथ साथ बहुजन समाज पार्टी के विधायकों ने वोट का बहिष्कार कर दिया लेकिन समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को वोट नहीं दिया. दोनों सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार भारी बहुमत से जीते.


कांग्रेस ने दे दिया है झटका

विपक्षी एकता की इस मुहिम की सबसे अहम कड़ी है कांग्रेस. नीतीश कुमार दावा कर रहे हैं कि उन्होंने कई क्षेत्रीय पार्टियों को कांग्रेस के साथ आने के लिए राजी कर लिया है. लेकिन स्थिति ये है कि कांग्रेस खुद ही बहुत राजी नहीं दिख रही है. कांग्रेस सूत्रों की मानें तो 12 जून की बैठक में राहुल गांधी और पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे शामिल नहीं होने जा रहे हैं. गुरूवार को जब कांग्रेस के महासचिव जयराम रमेश से पूछा गया कि विपक्षी एकता की बैठक में कौन शामिल होगा तो उन्होंने कहा कि ये बाद में तय करेंगे. पार्टी अध्यक्ष और सीनियर लीडर तय करेंगे कि बैठक में किसे भेजा जाये. जयराम रमेश ने इशारों में बता दिया कि राहुल गांधी या खरगे नहीं जा रहे हैं. कांग्रेस के फैसले गांधी परिवार लेता है. पार्टी के अध्यक्ष खरगे उसमें शामिल होते हैं. जब राहुल और खरगे ही बैठक में मौजूद नहीं होंगे तो दूसरा नेता सिर्फ दिखावे का प्रतिनिधित्व कर सकता है. फैसला नहीं.


केजरीवाल और कांग्रेस में घमासान

विपक्षी एकता की पोल अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस के बीच मचा घमासान भी खोल रहा है. अरविंद केजरीवाल अभी देश का दौरा कर रहे हैं. वे विपक्षी पार्टियों के नेताओं से मिल कर दिल्ली को लेकर केंद्र सरकार द्वारा लाये गये अध्यादेश का राज्यसभा में विरोध करने के लिए समर्थन मांग रहे हैं. केजरीवाल ने राहुल गांधी या कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे से मिलने के लिए पिछले 26 मई को ही समय मांगा था. राहुल गांधी उनका कोई नोटिस लिये विदेश चले गये. मल्लिकार्जुन खरगे अपनी पार्टी के आम वर्कर तक से मिल रहे हैं. लेकिन अरविंद केजरीवाल को मिलने का समय नहीं दिया गया.


दरअसल केजरीवाल को लेकर कांग्रेस में भारी घमासान मचा है. पंजाब कांग्रेस ने अपने आलाकमान को साफ कह दिया है कि केजरीवाल प्लेग हैं. उनके साथ बैठने का मतलब होगा कि प्लेग जैसी महामारी को फैलाना. दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के अजय माकन से लेकर संदीप दीक्षित ने राहुल गांधी और खरगे को साफ कह दिया कि केजरीवाल से दोस्ती का मतलब आत्महत्या करना होगा. गुजरात से लेकर गोवा में कांग्रेस की प्रदेश कमेटियों ने अपने नेतृत्व को कहा है कि किसी सूरत में केजरीवाल से दोस्ती नहीं करें.


कांग्रेस के सूत्र बताते हैं कि पार्टी के अंदर केजरीवाल को लेकर इतनी नाराजगी है कि अब आम आदमी पार्टी से किसी तरह की दोस्ती संभव नहीं है. 12 जून को पटना की बैठक में कांग्रेस की ओऱ से शामिल नेता अरविंद केजरीवाल से दूरी बना कर ही रहेगा. वैसे केजरीवाल को लेकर कांग्रेस का स्टैंड तो तभी साफ हो गया था जब कर्नाटक में नयी सरकार के शपथ ग्रहण में देश के तमाम विपक्षी नेताओं को न्योता दिया गया था. लेकिन अरविंद केजरीवाल को नहीं पूछा गया था.


विपक्षी एकता की बैठक से पहले ही कई नेताओं ने पल्ला झाड़ा

एक ओर जो पार्टियां 12 जून की बैठक में आने को तैयार हैं, उनके बीच घमासान मचा है. दूसरी ओर कई नेताओं ने पहले ही बैठक में शामिल होने से साफ मना कर दिया है. ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक विपक्षी एकता की मुहिम पर बात करने तक को तैयार नही हुए. तेलगांना के मुख्यमंत्री और भारत राष्ट्र समिति के अध्यक्ष के. चंद्रशेखर राव ने बैठक में आने से इंकार कर दिया है. आंध्र प्रदेश के सीएम जगन मोहन रेड्डी इस मुहिम से अलग हैं. बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती को इस बैठक या मुहिम से कोई वास्ता नही है. कर्नाटक में प्रभाव रखने वाले जेडीएस के नेता कुमारस्वामी भी बैठक से अलग हैं. यानि बैठक से पहले ये तय हो चुका है कि इन राज्यों में बीजेपी के खिलाफ कोई एकजुटता नहीं बनने जा रही है.


अपने घर का ठिकाना नहीं देश को दुरूस्त करने निकले

नीतीश कुमार की विपक्षी एकता की मुहिम की सबसे दिलचस्प बात ये है कि उनके अपने घर यानि बिहार में विपक्षी एकता का कोई ठिकाना नहीं है. 7 पार्टियों के महागठबंधन में सीटों का बंटवारा सही से हो पायेगा ये ही मुमकिन नहीं दिख रहा है. महागठबंधन के पास अभी 17 सीटिंग सांसद हैं. 16 जेडीयू के तो एक कांग्रेस के. अगले लोकसभा चुनाव में जेडीयू को कम से कम उतनी सीटें चाहिये जितने सीटिंग सांसद हैं. यानि बाकी बची 24 सीटों में राजद, कांग्रेस, माले, सीपीआई, सीपीएम और हम की हिस्सेदारी होगी.


अभी तक बिहार के महागठबंधन में शामिल एक पार्टी हम ने अपनी डिमांड रख दी है. जीतन राम मांझी की पार्टी को लोकसभा की पांच सीटें चाहिये. मांझी बोल रहे हैं कि उन्हें दूसरी ओर से यानि भाजपा से भी न्योता है. अभी महागठबंधन के साथ हैं लेकिन कड़ा फैसला लेने को तैयार हैं. अंदर की बात ये है कि जीतन राम मांझी को कम से कम तीन सीट चाहिये. पिछले लोकसभा चुनाव में वे राजद के साथ थे तो इतनी ही सीट मिली थी. लेकिन मौजूदा गठबंधन में किसी सूरत में उन्हें तीन सीट नहीं मिलेगी. ऐसे में मांझी पलटी मार जायें तो कोई हैरानी की बात नहीं होगी.


मामला भाकपा(माले) का भी है. 2020 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन ने माले को 19 विधानसभा सीट दी थी, जिसमें 12 उसने जीत लिया. माले के नेता अनौपचारिक बातचीत में कहते हैं कि उनकी दावेदारी पांच सीटों पर है. 2019 के लोकसभा चुनाव में राजद के गठबंधन ने माले के लिए एक सीट आरा छोड़ दिया था लेकिन माले एक सीट लेकर गठबंधन में आने को तैयार नहीं हुई थी. ये उस वक्त की बात है जब माले के पास एक भी विधायक नहीं था. अब उसके 12 विधायक हैं. उसके पास ये भी आधार है कि पर्याप्त विधायक होने के बावजूद भी वह सत्ता की मलाई खाने को तैयार नहीं हुई और सरकार में शामिल नहीं हुई.


अंदर की बात ये है कि माले किसी सूरत में तीन सीटों से कम पर नहीं मानेगी. वहीं, महागठबंधन में शामिल सीपीआई और सीपीएम को भी कम से एक-एक लोकसभा सीट चाहिये. सीपीआई किसी सूरत में बेगूसराय सीट नहीं छोड़ेगी. पिछले लोकसभा चुनाव में भी बेगूसराय से सीपीआई उम्मीदवार कन्हैया कुमार दूसरे स्थान पर रहे थे. वहां राजद के प्रत्याशी तीसरे स्थान पर रहे थे.


बिहार में कांग्रेस का क्या होगा

सवाल ये भी है कि नीतीश और तेजस्वी कांग्रेस को कैसे राजी करेंगे. 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने राजद समेत दूसरी पार्टियों के गठबंधन में 9 सीटों पर चुनाव लड़ा था. बिहार में महागठबंधन को सिर्फ एक सीट आयी वह कांग्रेस ने जीती थी. नीतीश-तेजस्वी अब कांग्रेस को इशारों में ये कह रहे हैं कि बिहार को हमारे लिए छोड़ दीजिये. कांग्रेस के कई नेताओं ने कहा-इसका सवाल ही कहां उठता है. नीतीश कुमार गठबंधन में आये हैं तो उन्हें एडजस्ट करने के लिए एक-दो सीट कम लिया जा सकता है. लेकिन कांग्रेस किसी सूरत में बिहार से खुद को आउट नहीं होने देगी.


बिहार में महागठबंधन का मामला वाकई दिलचस्प है. अगर छोटी पार्टियों की मांग मानी जाये तो राजद का क्या होगा. क्या राजद खुद को कुर्बान कर लेगी. भले ही पिछले दो लोकसभा चुनाव में उसके उम्मीदवार हारे लेकिन बिहार के दो दर्जन लोकसभा क्षेत्र उसके गढ़ माने जाते रहे हैं. क्या राजद अपने गढ़ को नीतीश कुमार के लिए ध्वस्त कर लेगी. सियासी विश्लेषक जानते हैं कि ऐसा कतई संभव नहीं है.


कुल मिलाकर कहें तो देश भर में विपक्षी एकता कायम करने चले नीतीश कुमार बिहार में ही महागठबंधन को एकजुट रख पायेंगे ये मुमकिन नहीं दिखता. लोकसभा चुनाव में महागठबंधन के भीतर घमासान मचना तय है. तभी चुनावी रणनीतिकार से राजनेता बनने की राह पर निकले प्रशांत किशोर बार-बार ये चुनौती दे रहे हैं कि नीतीश कुमार पहले बिहार में अपने सहयोगी दलों के बीच सीटों का बंटवारा कर लें और फिर देश की बात करें. 


विपक्षी एकता की मुहिम के पीछे मकसद क्या

विपक्षी एकता को लेकर जो बातें सामने आ रही हैं क्या उससे नीतीश कुमार या तेजस्वी यादव वाकिफ नहीं हैं. दरअसल ये दोनों जानते हैं कि विपक्षी एकता किसी सूरत में संभव नहीं है. फिर भी इतना पॉलिटिकल ड्रामा क्यों. जवाब ये है कि इस ड्रामे से नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव दोनों को फायदा नजर आ रहा है. बिहार के लोग अभी विपक्षी एकता की ही चर्चा में लगे हैं. सरकार की तमाम नाकामी और सरकार में बैठे लोगों के वादों पर चर्चा बंद हो गयी है.


बिहार के लोगों के बीच अब ये चर्चा नहीं हो रही है कि एक साल में 10 लाख नौकरी और 20 लाख रोजगार का क्या हुआ. तेजस्वी यादव 2020 से ही ये दावा कर रहे थे कि जैसे ही वे सरकार में आयेंगे वैसे ही पहली कलम से 10 लाख लोगों को सरकारी नौकरी देने का फैसला लेंगे. नीतीश ने 2022 में जब तेजस्वी यादव के साथ सरकार बनायी तो 15 अगस्त को गांधी मैदान से ये एलान कर दिया था कि एक साल में 10 लाख नौकरी और 20 लाख रोजगार दे देंगे. उनके एलान के लगभग 10 महीने बीत गये हैं. सरकार एक लाख नौकरी नहीं दे पायी. नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने कुछ नियुक्ति पत्र बांटे. उनमें से ज्यादातर ऐसी नियुक्तियां थी जो नीतीश-भाजपा सरकार के समय ही हो चुकी थी.


लेकिन विपक्षी एकता के शोर में 10 लाख नौकरी और 20 लाख रोजगार के वादे पर चर्चा बंद हो गयी है. चर्चा इस बात पर भी कम हो रही है कि तेजस्वी यादव ने सारे नियोजित शिक्षकों को नियमित वेतनमान देने का एलान किया था लेकिन सरकार में आते ही पलट गये. अब नियोजित शिक्षकों बीपीएससी परीक्षा पास करने पर सरकारी वेतनमान देने की बात कही जा है.


विपक्षी एकता के शोर में बिहार में बेलगाम होते जा रहे अपराध पर चर्चा कम हो रही है. बिहार में पिछले 6-8 महीनों में ताबड़तोड़ अपराध हुए हैं. लेकिन लोगों को ध्यान विपक्षी पार्टियों की एकता पर लगा है. बालू माफियाओं से लेकर शराब माफियाओं के आतंक राज पर भी चर्चा बंद हो गयी है.


किसी सरकार के लिए इससे बेहतर बात क्यो हो सकती है कि राजधानी पटना में अपराधी पुलिस मुख्यालय के बगल में हत्या कर दें, सिपाही को गोली मार कर आराम से निकल जायें, दरोगा को सरेआम रोड पर पीट दिया जाये, अपराधी हर रोज ताबड़तोड़ लूट की घटनाओं को अंजाम दें और आम लोग विपक्षी एकता पर चर्चा करें. तभी नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव को विपक्षी की बात रास आ रही है.