PATNA: बात 1990 की है. बिहार में विधानसभा चुनाव हुए थे और कांग्रेस को पछाड़ कर जनता दल ने बहुमत हासिल कर लिया था. लेकिन, मुख्यमंत्री कौन बनेगा, इस बात पर पेंच फंस गया. इस चुनाव से पहले केंद्र से भी कांग्रेस की विदाई हो चुकी थी और वीपी सिंह 1989 में प्रधानमंत्री बन चुके थे. विश्वनाथ प्रताप सिंह चाहते थे कि पुराने समाजवादी नेता रामसुंदर दास बिहार के मुख्यमंत्री बने. लेकिन लालू प्रसाद यादव उनके मजबूत प्रतिद्वंदी बनकर खड़े हो गये.
1990 में जनता दल की सरकार बनाने के लिए आखिरकार ये फैसला लिया गया कि विधायकों के बीच वोटिंग करायी जाये. जिसे ज्यादा वोट आये, वही मुख्यमंत्री बने. रामसुंदर दास के मुकाबले में खड़े लालू प्रसाद यादव का समीकरण गड़बड़ हो रहा था. हालांकि चंद्रशेखर ने रघुनाथ झा को मैदान में उतार कर लालू यादव की राह थोड़ी आसान कर दी थी. फिर भी लालू के लिए मंजिल मुश्किल ही थी. इसी बीच सामने आये नीतीश कुमार, जो उस वक्त केंद्र की विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार में कृषि राज्य मंत्री थे. नीतीश ने लालू के पक्ष में जबरदस्त फील्डिंग की. नतीजा ये हुआ कि लालू प्रसाद यादव ने जनता दल के विधायकों की वोटिंग में रामसुंदर दास को परास्त कर दिया और मुख्यमंत्री बन गये. 1990 के उसी दौर में नीतीश कुमार को राजनीति का चाणक्य कहा गया.
चाणक्य अभी जिंदा है
बिहार में पिछले 15-20 दिनों से जो सियासी ड्रामा चल रहा है, उसका निहितार्थ सिर्फ इतना है कि राजनीति का चाणक्य जिंदा है. कहावत है शेर बूढ़ा हो जाता है लेकिन घास नहीं खाता है. बिहार की राजनीति का चाणक्य भले ही बूढा हो गया हो लेकिन इतना भी बेबस नहीं हुआ है कि उसे वह घास खाना पड़े जो लालू यादव और तेजस्वी यादव से लेकर अपनी ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह खिलाना चाह रहे थे. बूढ़े चाणक्य ने ऐसी चाल चली है कि तेजस्वी यादव की सारी अकड़ गायब हो गयी है. ललन सिंह के तेवर ऐसे मुलायम पड़े हैं कि जिंदगी में पहली दफे बार-बार सफाई देनी पड़ रही है- “नीतीश कुमार से मेरे 37 साल पुराने संबंध हैं और उनका पूरा विश्वास मुझे हासिल है.” क्या किसी ने पहले कभी ललन सिंह को ऐसे सफाई देते देखा था. ललन सिंह हमेशा ऐसी अकड़ में रहे कि लोग यही समझते रहे कि असली पावर तो उन्हीं के पास है, नीतीश तो दिखावा हैं.
क्या करने जा रहे हैं नीतीश?
फिलहाल देश की राजनीति का सबसे बड़ा सवाल ये है कि नीतीश कुमार क्या करने जा रहे हैं. सवाल इसलिए उठा क्योंकि नीतीश कुमार ने आनन फानन में अपनी पार्टी से संबंधित कुछ फैसले लिये. दरअसल इस महीने की शुरूआत में ही जेडीयू ने ये तय किया था कि लोकसभा चुनाव की तैयारियों पर चर्चा के लिए 29 दिसंबर को दिल्ली में राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक बुलायी जाये. ये राजनीतिक प्रक्रिया थी, जिस पर कोई सवाल नहीं उठ रहा था. लेकिन खेल 19 दिसंबर से शुरू हुआ.
19 दिसंबर को दिल्ली में I.N.D.I.A गठबंधन की बैठक थी. उसमें शामिल होने गये नीतीश रात में दिल्ली के कामराज रोड स्थित अपने आवास में किचेन कैबिनेट के लोगों के साथ बैठे और फरमान जारी कर दिया कि 29 दिसंबर को ही जेडीयू के राष्ट्रीय पर्षद की बैठक भी बुला ली जाये. तय ये हुआ कि 28 दिसंबर से पार्टी की बैठकों का सिलसिला शुरू हो. 28 दिसंबर को पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारियों की बैठक हो. फिर 29 दिसंबर को राष्ट्रीय कार्यसमिति और आखिर में राष्ट्रीय पर्षद की बैठक हो. बता दें कि राष्ट्रीय पर्षद मतलब जेडीयू के जिला स्तर तक के नेताओं की बैठक.
जेडीयू का हर नेता ये जानता है कि पार्टी के राष्ट्रीय पर्षद की बैठक चुनिंदा मौकों पर ही बुलायी जाती रही है. जेडीयू ने राष्ट्रीय पर्षद की बैठक तभी बुलायी जब पुराने पार्टी अध्यक्ष को बदलना हो या नये अध्यक्ष को चुनना हो. 2016 में पार्टी की राष्ट्रीय पर्षद की बैठक तब हुई जब शरद यादव को हटाकर नीतीश खुद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने थे.
2019 में नीतीश फिर से अध्यक्ष चुने गये तो राष्ट्रीय पर्षद की बैठक बुलायी गयी थी. 2020 में जब नीतीश ने राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोड़ कर आरसीपी सिंह को अध्यक्ष बनाया तो फिर से राष्ट्रीय पर्षद की बैठक हुई. थी. 2021 में जब आरसीपी सिंह की राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से विदाई हुई और ललन सिंह को कुर्सी सौंपी गयी तब भी जेडीयू के राष्ट्रीय पर्षद की बैठक बुलायी गयी थी. इन मौकों को छोड़ कर पार्टी ने कभी किसी दूसरे मौके पर राष्ट्रीय पर्षद की बैठक नहीं बुलायी.
क्या नीतीश बीजेपी के साथ जायेंगे?
नीतीश के पाला बदल कर फिर से बीजेपी के साथ जाने की बात इसलिए उठ रही है क्योंकि उन्होंने पार्टी की लंबी-चौड़ी बैठक बुला ली है. लेकिन, क्या जेडीयू की बैठक का नीतीश के पलटी मारने के फैसले से संबंध हो सकता है. नीतीश के पलटी मारने के इतिहास को जानने वाले कहेंगे- नहीं हो सकता. 2013 में नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी के नाम पर भाजपा से पल्ला झाड़ लिया था. 2017 में उन्होंने तेजस्वी पर भ्रष्टाचार के केस को मुद्दा बनाकर राजद से पल्ला झाड़ कर भाजपा का दामन थाम लिया था. 2022 में बीजेपी को छोड़ कर राजद के साथ चले गये. क्या पलटी मारने के इन तीनों मौकों पर नीतीश कुमार ने पार्टी की कोई बैठक बुलायी थी. जवाब है-नहीं. पाला बदलने के फैसले के औपचारिक एलान से कुछ देर पहले विधायकों की बैठक बुलायी गयी और फिर मीडिया के सामने एलान कर दिया गया कि नीतीश कुमार ने नया गठबंधन बना लिया है.
अब पिछले कुछ दिनों से यूट्यूब औऱ फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर उछल कूद मचा रहे तथाकथित पत्रकारों के साथ साथ कुछ न्यूज चैनलों के ज्ञान पर तरस खाइये. दो पैसे की राजनीतिक समझ भी न रखने वाले ज्ञानियों को अगर दीवार पर लिखी इबारत समझ में नहीं आ रही है तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है. जो इबारत सामने लिखी है वह ये है कि नीतीश कुमार भाजपा के साथ नहीं जा रहे हैं. हमने कई सूत्रों को टटोला. पता चला कि गठबंधन को लेकर नीतीश कुमार की कोई बातचीत नरेंद्र मोदी या अमित शाह से नहीं हुई है. लेकिन नीतीश के पलटी मारने की खबरों से भाजपा नेताओं को मजा जरूर आ रहा है.
तो आगे क्या होगा?
बिहार की सियासत की दीवार पर जो इबारत लिखी हुई दिख रही है वह यह है कि राजनीति के चाणक्य ने अपने आखिरी दौर में भी वो चाल चली है जिससे कई लोग चित्त हो गये हैं. नीतीश कुमार ने एक झटके में लालू-तेजस्वी से लेकर अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह को हैसियत बता दी है. एक मास्टर स्ट्रोक के बाद तेजस्वी यादव की अकड़ लापता हो गयी है औऱ ललन सिंह 37 सालों से नीतीश कुमार से अपने संबंधों की दुहाई दे रहे हैं. लालू यादव की जुबान बंद हो गयी है.
मामले को अच्छे से समझने के लिए बिहार में पिछले 10-15 दिनों में हुए कुछ वाकयों को समझिये. आपको पता लगेगा कि तेजस्वी यादव अपने मुख्यमंत्री को हैसियत बताने में लगे थे. ये सिलसिला 10 दिसंबर के बाद शुरू हुआ था. 10 दिसंबर से 21 दिसंबर तक तेजस्वी यादव ने वैसे हर सरकारी कार्यक्रम का बहिष्कार किया जिसमें नीतीश कुमार को जाना था. तेजस्वी यादव के पास पर्यटन विभाग है. पर्यटन विभाग ने केसरिया बौद्ध स्तूप में कार्यक्रम किया, सीतामढ़ी के पुनौरा में कार्यक्रम किया. इन कार्यक्रमों का विज्ञापन अखबारों में छपा, सरकारी बैनर-होर्डिंग लगाये गये थे. सब में नीतीश के साथ तेजस्वी के मौजूद रहने की बात कही गयी थी लेकिन बिहार के डिप्टी सीएम ने अपने ही विभाग के कार्यक्रम का बहिष्कार कर दिया.
सबसे दिलचस्प वाकया तो 13-14 दिसंबर को पटना में हुए इन्वेस्टर्स मीट में देखने को मिला. तेजस्वी यादव को दोनों दिन देश-विदेश से जुटे उद्यमियों के साथ बैठक करनी थी. लेकिन तेजस्वी ने इन्वेस्टर्स मीट का बहिष्कार कर दिया. हां, बिहार के डिप्टी सीएम इन्वेस्टर्स मीट खत्म होने के बाद 15 दिसंबर को पटना में एक आईटी कंपनी के छोटे से कार्यालय का उद्घाटन करने पहुंच गये. मतलब ये था कि खुलकर ये मैसेज दिया जाये कि हम उस कार्यक्रम में नहीं जायेंगे, जहां नीतीश कुमार जायेंगे. ऐसे कार्यक्रमों की लंबी फेहरिश्त है, जिसमें तेजस्वी सिर्फ इसलिए नहीं गये क्योंकि वहां नीतीश कुमार को भी मौजूद रहना था.
हद तो दिल्ली में 19 दिंसबर को I.N.D.I.A गठबंधन की बैठक में हुई. बैठक में राजद की ओऱ से लालू-तेजस्वी मौजूद थे तो जेडीयू की ओऱ से नीतीश-ललन सिंह और संजय झा. प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक तेजस्वी यादव ने बैठक में मौजूद अपने मुख्यमंत्री से सही से दुआ सलाम तक नहीं की. लालू यादव की कुर्सी ठीक नीतीश कुमार के बगल में थी लेकिन लालू ने एक बार भी नीतीश से बात नहीं की. नीतीश कुमार तेजस्वी औऱ लालू की इस एंठन से हद से ज्यादा आहत थे.
सबक सीख गये लालू-तेजस्वी
INDIA गठबंधन की इसी बैठक के बाद नीतीश ने इस बात को हवा दी कि वे नाराज हैं. बैठक के बाद हुए प्रेस कांफ्रेंस के बहिष्कार से ये मैसेज दिया. खबर ये भी आयी कि नीतीश कुमार ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के फोन कॉल को भी इग्नोर कर दिया और उनसे बात नहीं की. इससे कांग्रेस में बेचैनी फैली. तब राहुल गांधी एक्टिव हुए. राहुल गांधी ने खुद नीतीश को फोन किया. दोनों के बीच लंबी बातचीत हुई और तब नीतीश ने कांग्रेस को भरोसा दिलाया कि वे I.N.D.I.A गठबंधन छोड़ कर नहीं जायेंगे. शर्ते इतनी है कि लालू-तेजस्वी खुद को ठीक कर लें.
नीतीश और राहुल गांधी के बीच बातचीत का मैसेज लालू-तेजस्वी के पास पहुंचाया गया. इसके बाद राजद के रहनुमाओं को ये समझ में आया कि नीतीश को नजरअंदाज करना आसान नहीं है. इसके बाद 22 दिसंबर को तेजस्वी यादव टाइम मांग कर नीतीश कुमार से मिलने के लिए पहुंच गये. वे नीतीश के सामने बैठकर सफाई देते रहे और नीतीश मुस्कुराते रहे. तेजस्वी की अकड़ गायब हो गयी थी. 22 दिसंबर के बाद तेजस्वी यादव हर उस कार्यक्रम में पहले ही पहुंच रहे हैं जहां नीतीश कुमार को जाना होता है.
ललन सिंह क्यों नपेंगे?
अब सवाल ये उठ रहा है कि ललन सिंह का क्या होगा और क्यों होगा. ललन सिंह तो नीतीश कुमार के सबसे विश्वस्त सहयोगी माने जाते रहे हैं. इसका जवाब भी सामने आ गया है. दरअसल ललन सिंह के मौजूदा रोल की कहानी तब से शुरू हुई जब से बीजेपी ने केंद्र में उन्हें मंत्री बनाने से इंकार कर दिया था. 2021 में नरेंद्र मोदी कैबिनेट के विस्तार के समय जेडीयू से एक मंत्री बनाने का फैसला लिया गया था. जेडीयू ने जब ललन सिंह का नाम भेजा तो बीजेपी ने साफ कह दिया था कि ललन सिंह को किसी सूरत में मंत्री नहीं बना सकते. उस दिन से ललन सिंह ने बीजेपी को निपटाने की ठान ली थी. सियासी जानकार कहते हैं कि 2022 में जब नीतीश कुमार ने बीजेपी का दामन छोड़ कर राजद के साथ जाने का फैसला लिया था, तो इसमें ललन सिंह ने ही सबसे अहम रोल निभाया था.
ऐसे बिगड़े ललन सिंह से नीतीश कुमार के रिश्ते
बीजेपी से जेडीयू के अलग होने के फैसले और उसके बाद के कुछ महीने तक तो सब ठीक था. लेकिन नीतीश कुमार औऱ ललन सिंह के बीच पिछले 6 महीने से संबंध खराब होने की शुरूआत हुई. उस दौरान ललन सिंह अपने संसदीय क्षेत्र मुंगेर का दौरा कर रहे थे. नीतीश कुमार के पास ये मैसेज गया कि ललन सिंह अपने क्षेत्र में लालू और तेजस्वी की कुछ ज्यादा ही जय जयकार कर रहे हैं. नीतीश को ये नागवार गुजरा. उस समय से बात बिगड़नी शुरू हुई.
इसका नतीजा ये हुआ कि सीएम आवास में हुई जेडीयू की एक बैठक में नीतीश के खास मंत्री अशोक चौधरी ने अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह की ऐसी तैसी कर दी और नीतीश कुमार चुपचाप वहां से निकल गये. इस वाकये के बाद नीतीश कुमार ने अशोक चौधरी से और ज्यादा निकटता दिखानी शुरू कर दी. ललन सिंह को आंखें सिर्फ अशोक चौधरी ने नहीं दिखायी. चर्चा ये हो रही है कि संजय झा जैसे मंत्रियों ने भी ललन सिंह को इग्नोर करना शुरू कर दिया. हाल ये हुआ कि ललन सिंह को अपने संसदीय क्षेत्र में जल निकासी की व्यवस्था करने के लिए जल संसाधन मंत्री संजय झा को पत्र लिखना पड़ा. ललन सिंह ने उसमें कहा कि बार-बार कहने के बावजूद जल संसाधन विभाग उनका काम नहीं कर रहा है.
संजय झा को लिखे गये ललन सिंह के पत्र ने कई मैसेज एक साथ दिये. दरअसल जेडीयू नेताओं का एक बड़ा तबका ये मानता रहा है कि ललन सिंह ने ही नीतीश कुमार पर दबाव बना कर संजय झा को जल संसाधन मंत्री बनवाया था. लेकिन अब संजय झा भी उनकी बात नहीं सुन रहे हैं. मतलब ये निकाला गया कि संजय झा को ये पता है कि ललन सिंह की नाराजगी से उनका कुछ नहीं बिगड़ने वाला है. नीतीश कुमार अब ललन सिंह की बात का नोटिस नहीं लेने वाले.
ललन सिंह ने विश्वास खो दिया
जेडीयू के एक बड़े नेता ने बताया कि बिहार के महागठबंधन में सीट शेयरिंग को लेकर जब नीतीश अपने करीबियों से चर्चा करते थे तो उस समय भी ललन सिंह का झुकाव राजद की ओर दिखता था. नीतीश इस बात पर अड़े हैं कि सीट शेयरिंग का फार्मूला यही होगा कि जेडीयू और राजद बराबर बराबर सीटों पर चुनाव लड़े. लेकिन ललन सिंह नीतीश को ये सलाह दे रहे थे कि राजद को ज्यादा सीट देने से कोई हर्ज नहीं है.
ऐसे कुछ वाकयों के बाद नीतीश कुमार के साथ भूंजा पार्टी में बैठने वाले लोग एक्टिव हुए. भूंजा पार्टी के सारे नेता पहले से ही ललन सिंह के विरोधी रहे हैं. वे नीतीश कुमार को ये समझाने में लग गये कि ललन सिंह विश्वासी नहीं है. जेडीयू के संविधान के मुताबिक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को चुनाव में उम्मीदवारों को सिंबल देने का अधिकार है. अगर ललन सिंह अध्यक्ष पद पर रहे तो अपने इस अधिकार का दुरूपयोग कर सकते हैं. किसी मौके पर वे नीतीश कुमार को दगा भी दे सकते हैं. अपने भूंजा पार्टी के सदस्यों की ये राय नीतीश को जंच गयी.
ललन सिंह का जाना तय
जेडीयू के सूत्र बता रहे हैं कि ललन सिंह की विदाई तय हो गयी है. हालांकि 28 दिसंबर को नीतीश कुमार और ललन सिंह के बीच दिल्ली में वन टू वन बातचीत होनी है. अगर उस बैठक में ललन सिंह पूरी तरह सरेंडर कर गये और नीतीश पिघल गये तो ठीक वर्ना नीतीश तो आगे की प्लानिंग करके बैठे हैं.