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8 साल बाद बिहार में दिखने लगा शराबबंदी का असर : घरेलू और यौन हिंसा समेत कई मामलों में आई कमी ; पुरुषों के हेल्थ में भी हुआ सुधार

1st Bihar Published by: First Bihar Updated Mon, 27 May 2024 08:28:02 AM IST

8 साल बाद बिहार में दिखने लगा शराबबंदी का असर : घरेलू और यौन हिंसा समेत कई मामलों में आई कमी ; पुरुषों के हेल्थ में भी हुआ सुधार

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PATNA : बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पूर्ण शराबबंदी कानून का असर दिखने लगा है। मतलब शराबबंदी का बहुत ही सकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार राज्य में शराबबंदी की वजह से 21 लाख घरेलू हिंसा के मामलों में और इससे लोगों की सेहत में सुधार दर्ज किया गया है। यहां शराब पीने के मामलों में भी 24 लाख की कमी आई है।


दरअसल, द लैंसेट रीजनल हेल्थ साउथ ईस्ट एशिया जर्नल में प्रकाशित नई रिसर्च के अनुसार बिहार में शराबबंदी के बाद से 18 लाख पुरुषों को अधिक वजन या मोटापे से ग्रस्त होने से रोका गया है। इसको लेकर जो शोध किए गए हैं, उनमें अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान के सदस्य भी शामिल थे। इस रिसर्च में बताया गया है कि सख्त शराब नीति ने बार-बार शराब पीने वालों और घरेलू हिंसा के पीड़ितों के लिए स्वास्थ्य के हिसाब से भी फायदेमंद साबित हो सकती है। 


बताया गया है कि रिसर्च टीम ने राष्ट्रीय और जिला स्तर पर स्वास्थ्य और घर-घर जाकर किए सर्वेक्षण के आंकड़ों का विश्लेषण किया। अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि शराबबंदी की सख्त नीतियां घरेलू हिंसा के कई पीड़ितों और शराब के आदी बन चुके लोगों के लिए स्वास्थ्य के लिहाज से लाभकारी हो सकती हैं। अध्ययन में लेखकों ने कहा कि प्रतिबंध से पहले बिहार के पुरुषों में शराब का सेवन 9.7 प्रतिशत से बढ़कर 15 प्रतिशत हो गया था। पड़ोसी राज्यों में यह 7.2 प्रतिशत से बढ़कर 10.3 प्रतिशत हो गया था। प्रतिबंध के बाद यह प्रवृत्ति बदल गई। बिहार में साप्ताहिक शराब के सेवन में 7.8 प्रतिशत की गिरावट आई है, जबकि पड़ोसी राज्यों में यह बढ़कर 10.4 फीसदी हो गई है। 


मालूम हो कि अप्रैल 2016 में बिहार में शराब के विनिर्माण, परिवहन, बिक्री और सेवन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है। इसके बाद बिहार में महिलाओं के खिलाफ शारीरिक हिंसा में कमी के सबूत भी मिले हैं। भावनात्मक हिंसा में 4.6 प्रतिशत की गिरावट और यौन हिंसा में 3.6 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। विश्लेषण में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 3, 4 और 5 के डेटा को शामिल किया गया था।