PATNA : बिहार का तमाम मीडिया सिस्टम जब जेडीयू की राष्ट्रीय कार्यसमिति को लेकर कयासों औऱ अटकलों के बीच झूल रहा था तो फर्स्ट बिहार ने पहले ही ये खबर दे दी थी कि ललन सिंह जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने जा रहे हैं. 31 जुलाई को दिल्ली में उनका अध्यक्ष चुनाव जाना तय है. ये कयासों पर आधारित खबर नहीं थी और ना ही कोई रॉकेट साइंस जिसे समझना मुश्किल था. जेडीयू की परिस्थियां बता रही थीं कि नीतीश कुमार के सामने कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा था. ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना कर संतुष्ट करने के सिवा उनके पास कोई उपाय नहीं था. उनके सबसे खास आरसीपी सिंह जो कारनामा कर गये थे उससे नीतीश के भविष्य की राजनीति खतरे में थी,जिससे ललन ही उबार सकते थे.
अपने ही जाल में फंस गये थे ‘चाणक्य’
सबसे पहले हम आपको चाणक्य की कहानी सुनाने 31 साल पहले यानि 1990 में ले चलते हैं. 1990 के विधानसभा चुनाव में बिहार के लोगों ने कांग्रेसी सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया था. जनता दल को बहुमत मिला था. लेकिन वहां मुख्यमंत्री पद के दो प्रमुख दावेदार थे. एक थे रामसुंदर दास जो पहले भी मुख्यमंत्री रह चुके थे, विनम्र औऱ समाजवाद के धुरंधर नेता. दूसरे लालू प्रसाद यादव, जिनकी छवि अलग थी. जनता दल नेतृत्व चाहता था कि रामसुंदर दास मुख्यमंत्री बनें लेकिन लालू यादव सीएम पद की दावेदारी के लिए अड़ गये. आखिरकार फैसला ये हुआ कि विधायकों के बीच वोटिंग करा कर ये तय किया जाये कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा. रामसुंदर दास की जीत तय मानी जा रही थी कि बीच में नीतीश कूदे. उन्होंने अपने स्वजातीय विधायकों की गोलबंदी लालू यादव के पक्ष में करा दी. वे सब रामसुंदर दास के सपोर्टर माने जाते थे. वोटिंग हुई औऱ लालू यादव एक वोट से जीत कर मुख्यमंत्री बन गये.
1990 के उसी प्रकरण के बाद नीतीश कुमार को राजनीति के चाणक्य की उपाधि दी गयी थी. बाद के कई मौकों पर नीतीश कुमार ने अपनी चाणक्य नीति दिखायी. लेकिन 31 साल बाद राजनीति का चाणक्य अपने ही जाल में फंस गया था. जिसे सबसे करीबी माना था उसने ही ऐसा गच्चा दिया कि नीतीश को अपने भविष्य की सारी रणनीति औऱ राजनीति ही खतरे में नजर आ रही थी.
आऱसीपी सिंह ने गहरी चोट दी
बिहार विधानसभा चुनाव के बाद जब नीतीश कुमार ने ये कहते हुए जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोड़ा कि पार्टी में एक व्यक्ति एक पद का फार्मूला चलेगा तो उनकी निगाह में कई बातें थी. दरअसल विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद नीतीश कुमार का कद इतना घट गया था कि बीजेपी के बड़े नेता उनसे बात नहीं कर रहे थे. भूपेंद्र यादव जैसे नेताओं को उनसे बात करने के लिए लगा दिया गया था. वहीं खुद को नरेंद्र मोदी या फिर कम से कम अमित शाह के बराबर मानने वाले नीतीश कुमार को उन दोनों से छोटे कद के किसी नेता से बात करना अपमान जनक लग रहा था. लेकिन सत्ता की बाजी बीजेपी के हाथो में थी औऱ भाजपा नेताओं से लगातार बातचीत करना मजबूरी बन गयी थी. ऐसे नीतीश कुमार एक ऐसा व्यक्ति खड़ा करना चाह रहे थे जो बीजेपी से अधिकृत तौर पर बात करे. जुबान भले ही उस व्यक्ति की हो लेकिन बात सारी नीतीश कुमार की हो. नीतीश को इसके लिए यही रास्ता सूझा कि किसी औऱ जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कमान सौंप दी जाये. उन्होंने इस पद के लिए अपने सबसे करीबी आरसीपी सिंह का नाम तय किया.
आरसीपी सिंह जब जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने तो कुछ औऱ बातें पहले से तय हो गयी थीं. चूकि पार्टी में एक व्यक्ति एक पद का फार्मूला लागू हो चुका था इसलिए अब अगर केंद्र में मंत्रिमंडल का विस्तार होता तो जेडीयू कोटे से मंत्री के तौर पर आरसीपी सिंह का नाम नहीं जाता. आरसीपी सिंह अध्यक्ष का कार्यभार संभालते औऱ मंत्री पद के लिए पहले दावेदार ललन सिंह होते जो जेडीयू संसदीय दल के नेता भी थे. लेकिन नीतीश ने जिसे वरतुहारी यानि शादी-ब्याह की बात करने भेजा था वह खुद दुल्हा बन बैठा. 7 जुलाई को जब केंद्र के मोदी मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ तो बीजेपी से बातचीत के लिए अधिकृत आऱसीपी सिंह ने अपना ही नाम मंत्री पद के लिए बढ़ा दिया. नीतीश देखते रह गये औऱ आरसीपी सिंह मंत्री बन गये.
ललन सिंह से था सबसे बड़ा खतरा
दरअसल 2020 के विधानसभा चुनाव में बुरी तरह चोट खाये नीतीश कुमार भविष्य की राजनीति देख रहे हैं. उनके एजेंडे में न सिर्फ अपना जनाधार बढ़ाना है बल्कि अपने उन दुश्मनों को सबक भी सिखाना है जिनके कारण वे चुनाव में औंधे मुंह गिरे. उन्हें बीजेपी को काबू में रखने का भी तरीका ढूंढना है. लेकिन आरसीपी सिंह ने ऐसा गच्चा दिया कि नीतीश के भविष्य की पूरी रणनीति खतरे में पड गयी. जेडीयू के ही एक वरीय नेता ने कहा कि आखिरकार अपने गृह जिले नालंदा के एक स्वजातीय को केंद्र में मंत्री बना कर नीतीश को क्या सियासी लाभ हासिल होता. आऱसीपी सिंह के मंत्री बनने से कोई जनाधार बढने की संभावना तो नहीं ही बनी, उल्टे कुर्मीवाद का ठप्पा माथे पर पड़ गया.
लेकिन सबसे बड़ा खतरा ललन सिंह की नाराजगी बन गयी थी. बिहार के सियासी जानकार जानते हैं कि नीतीश कुमार के पास आज की तारीख में ललन सिंह को छोड़ कर कोई दूसरा पॉलिटिकल मैनेजर है ही नहीं. आरसीपी सिंह के अध्यक्ष बनने के बाद ललन सिंह भारी नाराज थे औऱ ललन सिंह अगर बैठ जाते तो नीतीश कुमार का कई खेल एक साथ बिगड़ता. विधानसभा चुनाव के बाद के ही घटनाक्रम को देखें तो नीतीश के सबसे बड़े सियासी दुश्मन चिराग पासवान को ठिकाने लगाने में ललन सिंह ने ही सारा रोल निभाया. लोजपा के बिहार में एकमात्र विधायक राजकुमार सिंह ललन सिंह के दरवाजे पर आकर ही चिराग की रोशनी से दूर चले गये. चिराग पासवान के चाचा-भाई समेत पांच सांसदों ने भी ललन सिंह के मैनेजमेंट के कारण अलग राह पकड़ ली.
आऱसीपी सिंह के मंत्री बनने के बाद खतरा ये था कि अगर ललन सिंह नाराज होकर बैठ जाते तो नीतीश कुमार के पास कोई पॉलिटिकल मैनेजर नहीं बचता. लिहाजा विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी के विस्तार की जो चर्चा वे बार बार कर रहे थे उस पर पूर्ण विराम लग जाना था. दूसरा बीजेपी को हैंडल करने वाला भी कोई नहीं बचता. सियासी जानकार जानते हैं कि 2017 में जब नीतीश पाला बदल कर बीजेपी के साथ आये तो उसके बाद 2020 के चुनाव तक बीजेपी से हर डीलिंग वाया ललन सिंह ही हो रही थी.
बहुत सारे लोगों को 2019 के लोकसभा चुनाव का वो समझौता याद होगा जिसमें बीजेपी ने नीतीश कुमार के साथ आधी-आधी सीटों पर समझौते का एलान कर दिया था. उस समझौते तक बीजेपी को लाने वाले ललन सिंह ही थे. ललन सिंह ही उस दौर में अमित शाह से सारी बात कर रहे थे. जेडीयू के लिए 17 सीटें पक्की करा ली औऱ तब नीतीश कुमार दिल्ली जाकर अमित शाह के साथ सीटों के तालमेल पर साझा प्रेस कांफ्रेंस कर आये.
ललन के अलावा कोई विकल्प नहीं था
इन परिस्थितियों में ललन सिंह नीतीश कुमार के लिए मजबूरी बन गये थे. आऱसीपी सिंह के मंत्री बनने के बाद ललन सिंह भारी नाराज थे. ललन सिंह के करीबी बताते हैं कि उन्हें ये भी अंदेशा था कि आरसीपी सिंह औऱ नीतीश कुमार ने मिल कर केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने का खेल किया है. लिहाजा 7 जुलाई को केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार से दो दिन पहले से वे नाराज होकर अपने घर में पड़े थे. अपने ही जाल में फंस चुके ‘चाणक्य’ उन्हें कॉल कर रहे थे लेकिन ललन सिंह ने फोन रिसीव करना तक बंद कर दिया था. तब ये रास्ता निकाला गया.
7 जुलाई को ही तय हो गयी थी बातें
जानकार बताते हैं कि 7 जुलाई को नीतीश कुमार के बहुत बुलाने पर ललन सिंह उनसे मिलने सीएम आवास गये थे. नीतीश कुमार के पास ललन सिंह को संतुष्ट करने का जो तरीका था वो ही था कि उन्हें पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद दे दिया जाये. 7 जुलाई को ही नीतीश कुमार ने उन्हें अध्यक्ष पद का ऑफर दिया. ललन सिंह ने शुरू में ना-नुकुर की लेकिन बाद में वे माने. उसी दिन ये तय हुआ था कि जुलाई के आखिर में जेडीयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बुलायी जाये. वहीं आरसीपी सिंह की छुट्टी हो औऱ फिर ललन सिंह की ताजपोशी.
क्या करेंगे ललन सिंह
अब सवाल ये उठता है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष बन कर ललन सिंह क्या करेंगे. ललन सिंह संगठन बनाने वाले नेता नहीं माने जाते रहे हैं. उनकी अभिरूचि औऱ पहचान अलग रही है. जोड़-तोड़ से लेकर केस मुकदमे तक. जेडीयू का संगठन तो नीतीश कुमार के घर से ही चलेगा. ललन सिंह के जिम्मे जो काम पहले से था वे वह काम करते रहेंगे. यानि दूसरी पार्टियों को निशाना बनाने से लेकर बीजेपी को हैंडल करने का. लेकिन अब एक दूसरा काम भी उनके जिम्मे आ गया है.
आरसीपी सिंह ठिकाने लगाये जायेंगे
जेडीयू के जानकार जो बताते हैं उसके मुताबिक ललन सिंह के जिम्मे अब आऱसीपी सिंह को ठिकाने लगाने का काम भी होगा. सबसे पहले संगठन में उन्हें किनारे लगाने का काम शुरू होगा जो आरसीपी सिंह के करीबी माने जाते हैं. अभी का हाल ये है कि जेडीयू के प्रदेश कार्यालय में हर आदमी वही है जो आरसीपी सिंह का करीबी है. वे या तो किनारे लगाये जायेंगे या फिर आरसीपी सिंह का नाम भूल जायेंगे. जेडीयू में आरसीपी सिस्टम को तोड़ने का काम ललन सिंह के ही जिम्मे होगा.
2022 में क्या होगा
लेकिन सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न सामने है. आरसीपी सिंह का खुद क्या होगा. दरअसल आऱसीपी सिंह राज्यसभा सांसद हैं औऱ 2022 में उनका कार्यकाल समाप्त हो रहा है. जेडीयू के हर नेता के दिमाग में यही सवाल उठ रहा है कि क्या दो दफे राज्यसभा जा चुके आऱसीपी सिंह को फिर से राज्यसभा भेजा जायेगा. ललन सिंह की कार्यशैली को जानने वाले लोग ये समझते हैं कि अपने दुश्मनों से हर तरीके से निपटना उनकी आदत रही है. लेकिन लोग ये भी जानते हैं कि दो दशकों से भी ज्यादा समय तक नीतीश के सबसे करीब रह कर उनका हर राज जानने वाले आरसीपी सिंह को नकार देना खुद नीतीश कुमार के लिए आसान नहीं होगा. कुल मिलाकर 2022 में जेडीयू का खेल बेहद दिलचस्प होने जा रहा है.