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Bihar Election 2025 : एक पूरी कैटेगरी के विधायक हुए गायब; कभी जीतते थे 33 MLA; इस बार संख्या पहुंची शून्य

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 कई ऐतिहासिक बदलावों के साथ रिकॉर्ड बना गया। पहली बार एक भी निर्दलीय विधायक नहीं जीता, तीसरी ताकत पूरी तरह सिमट गई और मुकाबला एनडीए बनाम महागठबंधन पर केंद्रित रहा।

Bihar Election 2025 : एक पूरी कैटेगरी के विधायक हुए गायब; कभी जीतते थे 33 MLA; इस बार संख्या पहुंची शून्य

27-Nov-2025 01:49 PM

By First Bihar

Bihar Election 2025 : बिहार विधानसभा चुनाव 2025 न केवल सत्ता परिवर्तन और राजनीतिक समीकरणों के लिहाज से अहम रहा, बल्कि कई ऐतिहासिक रिकॉर्ड भी लेकर आया। पहली बार विधानसभा में एक भी निर्दलीय विधायक नहीं पहुंच सका। यह वह राज्य है जहां कभी एक चुनाव में 33 स्वतंत्र विधायक सदन तक पहुंचे थे। राजनीति की यह बदलती धारा बताती है कि बिहार में अब चुनाव मुकाबला पूरी तरह द्विध्रुवीय बन चुका है—एक तरफ एनडीए और दूसरी ओर महागठबंधन। तीसरी ताकत के लिए यहां लगभग कोई जगह नहीं बची है।


इस चुनाव में मतदान प्रतिशत ने आजादी के बाद के सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए। एनडीए गठबंधन ने प्रचंड जीत हासिल की और 2010 के अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन से सिर्फ पांच सीट पीछे रहा। 2010 में बीजेपी और जेडीयू ने अकेले 206 सीटें जीती थीं। इस बार एनडीए का वोट और सीट प्रतिशत दोनों बढ़ा, जबकि महागठबंधन का वोट प्रतिशत बढ़ने के बावजूद उसकी सीटें लगभग साफ हो गईं।


निर्दलीय विधायकों का बिहार की राजनीति में कभी बड़ा प्रभाव हुआ करता था। लालू यादव के मुख्यमंत्री बनने से पहले विधानसभा में अक्सर 20 से 30 के बीच निर्दलीय पहुंचते थे। 1967 में तो इनकी संख्या 33 तक पहुंच गई थी। 1985 में 29 निर्दलीय विधायकों ने विधानसभा में दस्तक दी थी। लेकिन बिहार-झारखंड विभाजन के बाद राजनीति का चेहरा बदलने लगा। 2000 के चुनाव में 20 निर्दलीय जीतकर आए, लेकिन इसके बाद उनकी संख्या लगातार घटती चली गई।


2005 के फरवरी चुनाव में 17 निर्दलीय चुनाव जीते, अक्टूबर में यह संख्या 10 रह गई। 2010 में छह, 2015 में चार और 2020 में केवल एक निर्दलीय जीत पाया—सुमित सिंह, जिन्हें बाद में नीतीश कुमार मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था। 2025 में पहली बार आंकड़ा शून्य पर आ गया। यह दर्शाता है कि मतदाता अब किसी तीसरी या अलग शक्ति के बजाय दो मजबूत गठबंधनों में ही अपना विकल्प देखता है।


तीसरी ताकत—अन्य दल और निर्दलीय—का वोट प्रतिशत 2000 में 36.8% था। 2005 के फरवरी चुनाव में यह 49.4% तक पहुंच गया था। लेकिन मौजूदा चुनाव में इन सबका संयुक्त वोट मात्र 15.5% रह गया। 2020 के चुनाव में यह 25.5% था, यानी पांच साल में 10% की भारी गिरावट आई। डेटा विश्लेषकों का मानना है कि तीसरी ताकत के वोट में आई इस गिरावट ने सीधे एनडीए को फायदा पहुंचाया। 2020 में महागठबंधन को 37.2% वोट मिले थे, जो 2025 में बढ़कर 37.9% हो गए, यानी उनका वोटर साथ में रहा। लेकिन तीसरे मोर्चे के लगभग 10% वोट एनडीए की तरफ शिफ्ट हो गए, जिसने उसे निर्णायक बढ़त दी।


महागठबंधन की हार का एक बड़ा कारण बागियों का असर भी रहा। कई सीटों पर बागी उम्मीदवारों की वजह से सीधे परिणाम प्रभावित हुए। सबसे बड़ा उदाहरण परिहार सीट का रहा, जहां राजद की बागी उम्मीदवार रितु जायसवाल को सबसे अधिक वोट मिले। रितु भले ही दूसरे नंबर पर रहीं, लेकिन उनकी वजह से राजद तीसरे स्थान पर खिसक गया। ऐसे कई क्षेत्रों में बागियों ने नतीजों पर सीधा असर डाला।


बिहार की चुनावी राजनीति में यह साफ दिखाई दे रहा है कि मतदाता अब स्थानीय प्रभाव वाले निर्दलीयों या छोटे दलों को मौका देने के बजाय स्थिर सरकार और प्रमुख गठबंधनों पर ज्यादा भरोसा कर रहा है। 1952 से लेकर 1985 के बीच निर्दलीयों का मजबूत अस्तित्व रहा, लेकिन 21वीं सदी के दो दशक बाद यह पूरी तरह खत्म हो चुका है।


ये चुनाव संकेत देते हैं कि आने वाले वर्षों में बिहार की राजनीति दो ध्रुवों के इर्द-गिर्द ही घूमेगी। तीसरी ताकत, चाहे वह छोटे दल हों या निर्दलीय, उनके लिए चुनावी गणित में जगह बेहद सीमित हो गई है। 2025 का यह चुनाव इस बदलाव का सबसे मजबूत प्रमाण बनकर सामने आया है।