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17-Nov-2025 08:57 AM
By First Bihar
Bihar politics: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) का खाता नहीं खुल पाया। पार्टी के संस्थापक मुकेश सहनी इस बार बड़े ही महात्वाकांक्षी अंदाज में चुनाव मैदान में उतरे थे। उन्होंने शुरुआत से ही उपमुख्यमंत्री पद की दावेदारी और 60 सीटों की मांग रखी थी। महागठबंधन पर भारी दबाव डालते हुए वीआईपी को उपमुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी तो घोषित कर दिया गया, लेकिन सीटों का आवंटन महज 15 पर ही सीमित रहा। इनमें से भी तीन सीटें राजद के दबाव के कारण वीआईपी को छोड़नी पड़ीं।
दरअसल, इस चुनाव में वीआईपी ने अधिकांश सीटों पर अत्यंत पिछड़ा वर्ग और मल्लाह-निषाद जैसी उपजातियों के उम्मीदवार उतारे। मुकेश सहनी चुनावी सभाओं में लगातार यह संदेश देते रहे कि महागठबंधन को मल्लाह-निषाद और अन्य सहयोगी जातियों का पूर्ण समर्थन मिलेगा और चुनाव जीतने पर उनके समाज का बेटा बिहार का उपमुख्यमंत्री बनेगा। बावजूद इसके, इस समूह के मतों का पर्याप्त समर्थन वीआईपी की झोली में नहीं आया।
चुनाव से केवल दो दिन पहले वीआईपी ने रणनीतिक बदलाव करते हुए गौड़ाबोराम से अपने प्रत्याशी संतोष सहनी को उतारा। संतोष सहनी, मुकेश सहनी के भाई, को उम्मीदवार बनाया गया और यहां तक कि महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव ने भी उनके चुनाव प्रचार में भाग लिया। लेकिन, चुनाव से दो दिन पहले ही वीआईपी ने गौराबोराम सीट से अपने प्रत्याशी को वापस ले लिया, जिससे पार्टी की रणनीति में और असमंजस की स्थिति उत्पन्न हुई।
2020 की तुलना करें तो वीआईपी को उस बार 4 सीटों पर जीत मिली थी। तब वीआईपी एनडीए का हिस्सा थी और एनडीए ने पार्टी को 13 सीटों का आवंटन दिया था, जिसमें से चार सीटों पर वीआईपी के उम्मीदवार सफल रहे थे। एनडीए से वीआईपी के अलग होने के बाद 2020 में पार्टी के सभी विधायक भाजपा में शामिल हो गए थे।
इस बार के विधानसभा चुनाव में वीआईपी के प्रत्याशियों की हार के परिणाम ने यह स्पष्ट कर दिया कि पार्टी अपनी महात्वाकांक्षा और चुनावी रणनीति के बावजूद बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में अपनी मजबूत पकड़ नहीं बना पाई। उपमुख्यमंत्री पद की मांग और बड़ी संख्या में सीटों के लिए पार्टी का दबाव, स्थानीय स्तर पर मतदाताओं को प्रभावित करने में सफल नहीं हो सका।
इस हार से वीआईपी को अगले विधानसभा चुनावों में अपने संगठन और रणनीति पर पुनर्विचार करना पड़ेगा। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि छोटे सहयोगी दलों के लिए बिहार में महागठबंधन या एनडीए जैसी बड़ी राजनीतिक पार्टियों के दबाव और रणनीतियों के बीच अपनी पहचान बनाए रखना लगातार चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है।