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Shivanand Tiwari statement : "तेजस्वी के लिए धृतराष्ट्र बने लालू", बोले शिवानंद तिवारी - संघर्ष करने के बदले सपनों की दुनिया में मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे लालू के बेटे

बिहार आंदोलन की यादों को ताज़ा करते हुए शिवानंद तिवारी ने खुलासा किया कि फुलवारी शरीफ़ जेल में लालू यादव ने उनसे अपने राजनीतिक सपने साझा किए थे। साथ ही उन्होंने तेजस्वी और राजद नेतृत्व पर कई गंभीर सवाल उठाए।

 Shivanand Tiwari statement : "तेजस्वी के लिए धृतराष्ट्र बने लालू",  बोले शिवानंद तिवारी - संघर्ष करने के बदले सपनों की दुनिया में मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे लालू के बेटे

16-Nov-2025 04:22 PM

By First Bihar

 Shivanand Tiwari statement : बिहार की राजनीति इन दिनों लालू परिवार के भीतर उभरते विवादों को लेकर गरमाई हुई है, और इसी बीच राजद के वरिष्ठ नेता रहे शिवानंद तिवारी का एक पुराना किस्सा नई बहस छेड़ रहा है। उन्होंने लालू परिवार में गहराते पारिवारिक विवाद को लेकर बड़ी बात कही है। उन्होंने कहा है कि यह जो कुछ भी हो रहा है उसकी वजह यह है कि खुद लालू यादव आज धृतराष्ट्र बने हुए हैं,जिस समय तेजस्वी को सड़क पर उतरकर संघर्ष  करना चाहिए था वह सीएम बनने और शपथ लेने का सपना देख रहा था।


बिहार की राजनीति जितनी दिलचस्प है, उतनी ही उतार–चढ़ाव से भरी भी। एक ऐसे ही दौर की यादें हाल ही में वरिष्ठ समाजवादी नेता शिवानंद तिवारी ने साझा कीं, जब वे और लालू प्रसाद यादव बिहार आंदोलन के दौरान फुलवारी शरीफ़ जेल की एक ही कोठरी में बंद थे। यह वह समय था, जब जेपी आंदोलन पूरे उफान पर था और युवा नेताओं की एक नई पीढ़ी राजनीति में उभर रही थी। लालू यादव उनमें सबसे तेज़ चमकते नेता थे, लेकिन शिवानंद तिवारी के अनुसार उनकी आकांक्षाएँ वैसी नहीं थीं जैसी उनके नेतृत्व की ऊँचाई से उम्मीद होती।


शिवानंद बताते हैं कि जेल की रातें राजनीतिक चर्चाओं से भरी रहती थीं। भोजन के बाद जब दोनों अपनी-अपनी चौकी पर लेटते, तभी भविष्य की बातें होतीं। उसी दौरान लालू ने उनसे कहा था— “बाबा, मैं राम लखन सिंह यादव जैसा नेता बनना चाहता हूँ।” शिवानंद कहते हैं कि उस समय वे यह सुनकर चकित हुए थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि लालू की क्षमता उससे कहीं बड़ी थी। पर आज की राजनीति को देखते हुए उन्हें लगता है कि शायद लालू की वह आकांक्षा पूरी हो गई। लालू का परिवार पूरी ताकत से राजनीतिक विरासत को थामे हुए है, लेकिन इस बार उनकी पार्टी मात्र 25 सीटों पर सिमट गई।


यहीं से शिवानंद तिवारी अपने कटु अनुभवों की तरफ रुख करते हैं। वे कहते हैं कि कई लोग यह सवाल उठा सकते हैं कि जो व्यक्ति कभी राजद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रहा हो, वह आज ऐसे आरोप क्यों लगा रहा है। इस पर वे साफ कहते हैं कि वह सब अतीत हो चुका है। तेजस्वी यादव ने उन्हें केवल उपाध्यक्ष पद से ही नहीं हटाया, बल्कि कार्यकारिणी से भी बाहर कर दिया। कारण वे बताते हैं— “क्योंकि मैं कह रहा था कि मतदाता सूची का सघन पुनरीक्षण लोकतंत्र के खिलाफ साज़िश है। इसके विरोध में सड़क पर उतरकर संघर्ष करो, पुलिस की मार खाओ, जेल जाओ। लेकिन तेजस्वी तो सपनों की दुनिया में मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहा था।”


शिवानंद तिवारी ने लालू यादव की कार्यशैली पर भी सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि लालू अपने बेटे के लिए धृतराष्ट्र की तरह सिंहासन गर्म कर रहे थे। उन्हें लगता है कि तेजस्वी की राजनीति आदर्शों की जगह महत्वाकांक्षा के सहारे आगे बढ़ रही थी, और यही कारण है कि वे असहमति सहन नहीं कर पाए। जो लोग सच बोलते थे, वे एक-एक कर पार्टी के किनारे कर दिए गए, और अंतत: राजद उस स्थिति में पहुंच गई जहां वह भारी पराजय से बच नहीं सकी।


वहीं, मतदाता सूची पुनरीक्षण पर अपनी आपत्ति दोहराते हुए शिवानंद ने कहा कि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर करने की कोशिश थी। वे चाहते थे कि राजद इस मुद्दे पर राहुल गांधी के साथ मिलकर सड़क पर संघर्ष करे, लेकिन तेजस्वी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। उनका आरोप है कि तेजस्वी भविष्य के सपनों में खोए हुए थे और ज़मीन के सवालों पर पार्टी की आवाज़ कमजोर होती चली गई।


वे कहते हैं कि अब वे मुक्त हैं— “अब मैं आज़ाद हूँ। फुरसत पा चुका हूँ। अब कहानियाँ सुनाता रहूँगा…” यह वाक्य सिर्फ एक टिप्पणी नहीं, बल्कि उनकी लंबी राजनीतिक यात्रा के एक नए अध्याय का संकेत भी है। ऐसा लगता है कि वे अब पार्टी राजनीति की सीमाओं से मुक्त होकर अपनी स्मृतियों, अनुभवों और सच्चाइयों को जनता के सामने लाने का मन बना चुके हैं।


शिवानंद तिवारी के यह बयान कई सवाल खड़े करते हैं—क्या राजद के भीतर असहमति की जगह कम होती जा रही है? क्या लालू-तेजस्वी की राजनीति आंदोलन की बुनियाद से दूर हो चुकी है? और क्या पार्टी नेतृत्व के फैसलों ने खुद उसके जनाधार को कमजोर किया? यह प्रश्न बिहार की भविष्य की राजनीति के लिए महत्वपूर्ण हैं।


जो भी हो, शिवानंद तिवारी की यह कहानी सिर्फ अतीत का संस्मरण नहीं, बल्कि बिहार की वर्तमान राजनीति पर एक तीखी टिप्पणी भी है। आने वाले दिनों में वे और क्या-क्या “कहानियाँ” सुनाएंगे, यह देखना दिलचस्प होगा।