दिल्ली से साइकिल चला 9 दिनों में पटना पहुंचे 3 दोस्त, फर्स्ट बिहार पर सुनिए इनकी पूरी कहानी,देखें VIDEO

दिल्ली से साइकिल चला 9 दिनों में पटना पहुंचे 3 दोस्त, फर्स्ट बिहार पर सुनिए इनकी पूरी कहानी,देखें VIDEO

PATNA : केन्द्र सरकार हो या फिर राज्य सरकारें वे लाख दावें कर ले कि अपने राज्य के बाहर फंसे मजदूरों की मदद के लिए वे हर संभव कदम उठा रहे हैं। उनके खाने-पीने का पूरा इंतजाम किया जा रहा है। सरकार उनके खाते में पैसे भेज रही है लेकिन ये तमाम दावें उस वक्त झूठे साबित हो जाते हैं जब भूख-प्यास से हार चुके मजदूर  अपनी व्यथा-कथा सुनाते हैं। ऐसे ही तीन दोस्तों पर भूख भारी पड़ी तो जुगाड़ वाली साइकिल से अपने-अपने घरों को निकल पड़े। 


फर्स्ट बिहार की टीम निकली तो उसे साइकिल चलाते तीन मजदूर दोस्त मिले। संवाददाता गणेश सम्राट ने उनसे बात की तो पता चला कि ये तीनों युवक दिल्ली से पटना पहुंचे हैं वो भी साइकिल से। जितनी कष्ट भरी इनकी साइकिल यात्रा रही उससे कही ज्यादा परेशानी भरी रही रही साइकिल का जुगाड़। 


दिल्ली में पत्थर मजदूरी करने वाले तीन दोस्तों गुलशन, रविन्द्र और अजय की कहानी दर्द भरी है, इनकी कहानी अमूमन वैसी ही जैसी इस वक्त देश के लाखों मजदूरों की है। लॉकडाउन में काम बंद हो तो पास बचे पैसे खत्म होते चले गये। लॉकडाउन एक-दो तो किसी तरह बीत गया तीन आया तो कष्टों में इजाफा होते चला गया। रोजगार तो छिन ही गया था अब रोटी पर भी आफत आ गयी । फिर तीनों दोस्तों ने दिल्ली से अपने गांव लौटने की प्लानिंग की। लेकिन लौटे तो कैसे। फिर शुरू हुई साइकिल जुगाड़ करने की कवायद। 


अजय ने घर वालों को फोन किया तो जैसे-तैसे जुगाड़ कर उन्होनें पांच हजार रुपये अजय को भेजें। इसके बाद अजय ने 4200 रुपये लगाकर एक साइकिल खरीदी इधर गुलशन ने ठीकेदार से मिले 2500 रुपये से साइकिल खरीदी तो सबसे सौभाग्यशाली रविन्द्र रहे जिन्हें महज 500 की साइकिल 2000 रुपये में मिल गयी। फिर तीनों दोस्त बोरिया-बिस्तर बांध चल पड़े घर की ओऱ। 


दिल्ली से ये तीनों दोस्त सात मई को घर के लिए निकले। पूरे रास्ते रोजाना 15-15 घंटे साइकिल चलाया तो नौ दिनों के भगीरथ प्रयास से हजारों किलोमीटर तय कर पटना पहुंचे। ये तीनों दोस्त नवगछिया और पूर्णिया के रहने वाले हैं। पटना पहुंचते-पहुंचते ये इतने ज्यादा थक चुके थे कि वे पटना के बस स्टैंड पहुंचे कि अगर बस मिले तो वे घर लौट सके लेकिन यहां भी उन्हें निराशा हाथ लगी। न तो उन्हें ट्रेनों की जानकारी मिली और न हीं सरकार के पैसे । अब बस घर पहुंचने का इंतजार है 'जान बची तो लाखों पाए लौट के बुद्धू घर को आए ।'