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24-Oct-2025 09:40 AM
By First Bihar
Bihar Assembly Elections : बिहार विधानसभा चुनाव में जातीय गणना और टिकट वितरण के बीच बड़ा अंतर देखने को मिला है। राज्य में हुई जातीय गणना को विधानसभा में सर्वसम्मति से पारित किया गया था और इसे लेकर कहा गया था कि इससे ‘जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी भागीदारी’ का फार्मूला राजनीति में भी लागू होगा। हालांकि, चुनावी मैदान में इसका असर टिकट वितरण में नजर नहीं आया। दोनों बड़े गठबंधन एनडीए और महागठबंधन ने परंपरागत राजनीतिक समीकरणों के अनुसार ही टिकटों का बंटवारा किया, न कि जातीय गणना को आधार मानते हुए।
अगर जातीय गणना को ध्यान में रखा जाता तो 243 विधानसभा सीटों में पिछड़ा वर्ग के लगभग 66, अति पिछड़ा वर्ग के 88, अनुसूचित जाति के 47, अनुसूचित जनजाति के पांच और सामान्य वर्ग के 38 सीटों पर उनका प्रतिनिधित्व होना चाहिए था। लेकिन दलों ने अपने पुराने समीकरणों और जीत के फार्मूले के आधार पर ही टिकट बांटे।
अति पिछड़ा वर्ग में कुल 112 जातियां शामिल हैं, लेकिन एनडीए ने इनमें केवल धानुक, चौरसिया, मल्लाह, कानू, तेली, गंगोता चंद्रवंशी जैसी चार-पांच जातियों को ही टिकट दिया। महागठबंधन ने भी इसी पैटर्न को अपनाया। 1% से अधिक आबादी वाली जातियां ही टिकट पाने में सफल रहीं, जबकि अधिक आबादी वाली कई जातियों को टिकट नहीं मिला। इसके अलावा, अति पिछड़ों में आर्थिक रूप से मजबूत जातियों को अधिक प्राथमिकता दी गई।
अति पिछड़ा वर्ग की कई जातियां जैसे कुंभकार, गोड़ी, राजवंशी, अमात, केवर्त, सेखड़ा, तियर, सिंदूरिया बनिया, नागर, लहेड़ी, पैरघा, देवहार, अवध बनिया बक्खो, अदरखी, नामशुद्र, चपोता, मोरियारी, कोछ, खंगर, वनपर, सोयर, सैकलगर, कादर, तिली, टिकुलहार, अबदल, ईटफरोश, अघोरी आदि इस चुनाव में प्रतिनिधित्व से वंचित रहीं। इन जातियों की संयुक्त आबादी 1 करोड़ 76 लाख 16 हजार 978 है।
अनुसूचित जातियों की बात करें तो बिहार में 22 अनुसूचित जातियां शामिल हैं। एनडीए और महागठबंधन दोनों ने पारंपरिक उम्मीदवार उतारे, जिनमें पासवान, रविदास, मुसहर, धोबी और पासी प्रमुख हैं। कुछ अन्य एससी जातियों से भी उम्मीदवार मैदान में हैं, लेकिन व्यापक प्रतिनिधित्व नहीं है।
पिछड़ा वर्ग में कुल 30 जातियां हैं। महागठबंधन और एनडीए दोनों ने यादव, कोयरी, वैश्य और कुर्मी जातियों पर केंद्रित होकर अधिकांश टिकट दिए। पिछड़े वर्ग के अन्य जातियों को चुनावी प्रतिनिधित्व नहीं मिला।एनडीए में भाजपा, जदयू, लोजपा आर, रालोमो और हम पार्टी शामिल हैं। इन पांचों दलों ने मिलकर 86 सवर्ण उम्मीदवारों को मैदान में उतारा। पिछड़ा वर्ग से 67 और अति पिछड़ा वर्ग से 46 उम्मीदवारों को टिकट दिया गया। सवर्ण उम्मीदवारों में 35 राजपूत, 33 भूमिहार, 15 ब्राह्मण और दो कायस्थ हैं।
महागठबंधन में राजद, कांग्रेस, वीआईपी और लेफ्ट की पार्टियां शामिल हैं। इसमें 42 सवर्ण, 117 पिछड़ा, 27 अति पिछड़ा, 38 अनुसूचित जाति और दो अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवार मैदान में हैं। पिछड़ा वर्ग में आधे से अधिक यादव हैं। राजद ने 67 यादव, 23 कोयरी, तीन कुर्मी और 13 वैश्य समाज के उम्मीदवारों को टिकट दिया।
कुल मिलाकर, जातीय गणना के बावजूद चुनावी रणनीति परंपरागत समीकरणों और जीत के फार्मूले पर आधारित रही। अति पिछड़ों, अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्ग के कई समुदायों का प्रतिनिधित्व सीमित रह गया, जबकि कुछ जातियां जहां जनसंख्या कम है, उन्हें अधिक प्राथमिकता मिली। इस स्थिति से यह साफ है कि बिहार की राजनीति में जातीय गणना का वास्तविक प्रभाव अभी भी राजनीतिक निर्णयों में नहीं दिखा।
इस चुनाव ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया कि वोट बैंक और जीत की संभावना जातीय गणना से अधिक मायने रखती है। राजनीति में वास्तविक प्रतिनिधित्व और जातीय गणना के बीच यह अंतर भविष्य के लिए गंभीर संकेत देता है, खासकर दलों और गठबंधनों के टिकट वितरण और चुनाव रणनीति के दृष्टिकोण से।